Wednesday, September 22, 2010




कुछ मन की
अयोध्या की बालिग हो चुकी तारीख़
(गुरुवार /23 सितम्बर 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता / नई दिल्ली )


ज़िक्र इस बार मेरे लिए बालिग हो चुकी अयोध्या की उस तारीख का, जिसे किसी खास दोस्त के बर्थडे की तरह हमेशा याद रखा। मौसम उन दिनों दिल्ली के मेरे मध्यम वर्गीय मोहल्ले के लोगों का दोपहर में छत पर बैठकर मूंगफली और गुड़ खाने का था। यानि साल के आखिरी महीने की धूप का मज़ा, स्वाद और बेफिक्री।

पड़ोस के सरकारी स्कूल की चारदीवारी पर पीले रंग की पुताई से ही साल भर काम चल जाया करता था। पढ़ते भले ही उसमें हम न हों पर हम सब दोस्त उस स्कूल के विशाल मैदान का फायदा भरपूर उठाते थे। लंबे, चौड़े लोहे के गेट को फांदने का बड़ा काम करने के बाद कई घंटे खेलने के कारण स्कूल अपना सा लगता था। स्कूल का ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि बाहर से पीले रंग में रंगी दीवारों पर लिखे स्लोगनों के ज़रिए ही बेफिक्र बचपन में, मैं अयोध्या के इस देश में कहीं होने और वहां किसी मंदिर के बनाए जाने के बारे में जान पाया था।

वैसे अपने स्कूल में पढ़ने और भूल जाने की परंपरा को मैंने सरकारी स्कूल की दीवार पर लिखे को पढ़ने के बाद भी कायम रखा। चारदीवारी पर चार पांच टाईप के रोचक स्लोगन किसी ने लिखे थे-- कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे। अजुध्या चलो। बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का। कल्याण सिंह कल्याण करो, मंदिर का निर्माण करो। ईंटा गोली खाएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो। उस साल चारदीवारी पर स्कूल को दोबारा पुताई करवानी पड़ी।

दो दिन बाद मंगलवार की शाम गुलदाने रूपी प्रसाद के लालच में गली के मोड़ पर बने मंदिर में जाने पर मैंने पंडित जी से पूछा कि आप क्या कोई मंदिर कहीं और भी बनवा रहे हो। पंडित जी ने भोलेपन से भरे इस सवाल को एक बार में न समझ पाने के एक्सप्रेशन दिए तो प्रसाद चढाने के लिए पीछे खड़ी भीड़ को ध्यान में रखते हुए, मैं जवाब लिए बिना ही निकल लिया। मेरे लिए वो स्लोगन वाला मंदिर अपने गली के मंदिर की एक और ब्रांच था शायद।

किसी भी तरह के नारे जीवन में पहली बार लॉन्च हुए थे तो मैं उत्साहवश इन्हें सबके सामने कई बार लगा भी चुका था। जोश में। यह सारा किस्सा है 6 दिसंबर के करीब एक सप्ताह पहले का है। ठीक उस दिन तो याद ही नहीं था कि नारों के पीछे क्या छिपा हो सकता था। याद पर ही सारा किस्सा निर्भर है।

रविवार का धीमा दिन और घर के मुखिया की छुट्टी। सरकारी कंट्रोल के अलावा घरवालों का भी टीवी पर कंट्रोल। देखने को एक चैनल। पढाई कर के दिखाने का दबाव, किताबों के बीच छिपा कर घंटों कॉमिक्स पढ़, थक जाने की लुक देना। यही सब था रविवार अपने लिए उन दिनों।

हां, उस रविवार एक खास योजना को अगर अयोध्या में अंजाम दिया जाना था तो अपने घर में भी सर्दी के मौसम की हिट आईटम, गाजर का हलवा, बनाने को मंज़ूरी मिल चुकी थी। सच कहूं तो गाज़र खरीद, उन्हें ढो कर लाने के वक्त जब स्कूल की दीवार पर नज़र पड़ी तभी यह याद आया आज तो वह मस्जिद, जिसे बाद में विवादित ढांचा कहने का फरमान आया, गिरा दी गई होगी। गाजर लाने में इतनी मेहनत हो चुकी थी कि फिर सीधा शाम को ही ख्याल आया कि 8.30 के समाचार सुन लें कि आखिर कुछ हुआ कि नहीं। दरअसल वो टीवी देखने का शौक ही था केवल कि चाहे टीवी पर कुछ भी आ रहा हो, उसे देखने पर मजबूर कर देता था।

कुछ विज़ुयल जब चले तो वो ढांचा तो दिख रहा था और उस पर लोग भी चढ़े दिख रहे थे। उसे देख अचरज भरे मन में यही सवाल आया कि भाई लोग इतना उपर चढ़े कैसे होंगे। शायद रोज़ खुद सरकारी स्कूल के गेट को टापने के कारण मन में आई हो ये बात। ज़हन में यह सवाल नहीं था कि यह सब गलत है कि सही। होता भी क्यों और कैसे। मन में हलवा, सोचो गाजर का हलवा, खाने की उमंग थी और शरीर गाजर घिसने, उन्हें पकाने में मदद करने के कारण आराम मांग रहा था।

विज़ुयल दिखा रहे थे कि कुछ लोग गुंबद पर हथौड़े से वार कर रहे थे। मैंने सोचा कि ये लोग जहां बैठे हैं उसी जगह को उपर से तोड़ रहे हैं, ऐसे में क्या ये खुद गिरकर चोट नहीं खा जाएंगे। शायद ऐसा हुआ भी आने वाले सालों में। धुंधला सा याद है कि न्यूज़ प्रस्तुतकर्ता सरला ज़रीवाला जोकि बाद में सरला महेवरी हो गईं, उन्होंने यह बुलेटिन पढ़ा था और बताया था कि विवादित ढांचा गिरा दिया गया। पर ढांचा तो दिखाया था तो मैंने कहा कि ये बता अलग रहे हैं और दिखा अलग। अब मुझे क्या पता कि गिरने के बाद उन्होंने क्यों नहीं दिखाया।

मुझे क्या पता कि आज 92 साल की उम्र में व्हीलचेयर पर चलने को मजबूर वीएचपी नेता गिरीराज किशोर उस समय सीने में पेसमेकर लगे होने के बावजूद भी 74 साल के नौजवान थे। उनकी लुक से एकदम अलग हल्की पतली मूंछो वाले क्लीनशेव अशोक सिंघल और वो राम लक्ष्मण की जोड़ी के रूप में प्रसिद्ध थे। मुझे यह कैसे पता हो कि समय ने उनको अहसास दिलवाया कि भाजपा के हाथों अपने आंदोलन को सौंप देना ही उनके जीवन की भूल होगी।

आडवाणी, उमा भारती, कटियार, जोशी ये कौन थे मैं नहीं जानता था। यूपी का सीएम होने के नाते कल्याण सिंह को जानता था। बस नामभर।

तारीखें कैसे महत्वपूर्ण हो जाया करती हैं यह इससे पहले जागरूक होते बचपन में राजीव गांधी की हत्या पर पता लगा था शायद। लेकिन किसी इमारत की हत्या के बाद तारीख के अमर हो जाने का यह पहला वाक्या था। इसके बाद इमारत से जुड़ा अगला अनुभव शायद 9/11 को लेकर था। अब मन में सवाल ये उठा कि उस भरी इमारत को उड़ाने वाले तो आतंकवादी कहलाते हैं। ठीक। लेकिन खाली इबादतगाह को चढ़ चढ़ कर हथौड़ा मारने वालों को क्या समझा जाए, यह न तो तब समझ पाया और न अब कोशिश करने का मन है।

आज लगभग अठारह साल बाद अयोध्या की ये तारीख मानो बालिग हो चुकी है किसी एक पक्ष में वोट डालने के लिए। चुनने के लिए। या कहें कि शायद फिर ठगे जाने के लिए।

(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर से कॉलम लिखते हैं . )

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