Saturday, October 2, 2010
रूमनी घोष के पुरस्कार पर सवाल
(शनिवार /02 अक्टूबर 2010 /इंदौर /मीडिया मंच )
सरोजनी नायडू भारत की मशहूर कवियत्री और इंडियन नेशनल कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष थीं। अमासो बाई मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तिंसई गांव की पूर्व सरपंच हैं। रूमनी घोष एक जनवादी किस्म की पत्रकार हैं और फिलहाल दैनिक भास्कर इंदौर की विशेष संवाददाता हैं।
जाने-अनजाने ही सही, पर इन तीनों में एक संबंध स्थापित हो गया है। दरअसल, हुआ यूं कि अमासो बाई की सरपंची की कहानी को रूमनी ने अपने अखबार के महिला विशेषांक में प्रकाशित किया और हंगर प्रोजेक्ट ऑफ इंडिया द्वारा घोषित सरोजनी नायडू पुरस्कार हासिल कर लिया। वे बधाई की पात्र हैं क्योंकि एक तो वे महिला पत्रकार हैं और दूसरा पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति पर लेखन करके उन्होंने यह सम्मान हासिल किया है।
परन्तु सरोजनी, अमासो और रूमनी में बड़ा फर्क है। सरोजनी के मौलिक लेखन ने उन्हें नाइटइंगल ऑफ द इंडिया की पदवी मिली थी, अमासो को उसके मौलिक सोच और संघर्ष के कारण मप्र के पंचायती राज में विशेष स्थान हासिल हुआ...परंतु रूमनी का पुरस्कार मौलिक लेखन पर आधारित नहीं है।
घुमावदार बातों के बजाए सीधी बात। रूमनी ने जिस खबर पर यह पुरस्कार हासिल किया है, वह उनकी मूल रचना नहीं है। वह कम से कम चार बार प्रकाशित हो चुकी है। एक बार मीडिया फॉर राइट्स की वेबसाइट पर (सीमा जैन द्वारा) , दूसरी बार सेंट्रल क्रानिकल में, तीसरी बार शिखर वार्ता में (राजू कुमार द्वारा) और चौथी बार पीपुल्स समाचार में।
क्या कोई खबर किसी अखबार में छप जाने भर से अमौलिक कहलाएगी? सवाल तो यही उठता है। इसका भी जवाब मौजूद है। पहले जो चार समाचार प्रकाशित हुए हैं, उनमें और रूमनी की स्टोरी में कोई फर्क नहीं दिखता है। एक तथ्य यह भी है कि जब रूमनी ने समाचार लिखा, तब अमासो सरपंच नहीं थी, जबकि दूसरों ने जब खबर बनाई तब अमासो सरपंच हुआ करती थी। तभी उसने हस्ताक्षर करना सीखा, गांव में शराबबंदी करवाई और महिलाओं को एकजुट करके विकास कार्य किए।
एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि पहले की खबरों में जो फोटो प्रकाशित हुए हैं उनमें और रूमनी की स्टोरी के फोटो में कोई अंतर नहीं है। ताज्जुब है खबरों में अमासो ने एक सी साड़ी, चूडिय़ां और ब्लाउज पहन रखा है। सभी में उसकी मुस्कराहट भी एक सी है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि अमासो की खबर सबसे पहले रूमनी ने कवर की और उसे गलती से दूसरों ने छाप लिया। ऐसा हो भी सकता है, परंतु यकीन नहीं होता क्योंकि भला महिला दिवस के विशेष पेज के लिए कोई एक खबर को 11 महीने संभाल कर क्यों रखेगा? यदि वास्तव में ऐसा हुआ भी हो, तो क्या 11 महीने पुरानी खबर को प्रकाशित कर देना चाहिए? कर भी दे तो क्या उसे पुरस्कार की एंट्री में भेज देना चाहिए? और पुरस्कार की घोषणा हो भी जाए, तो क्या पुरस्कार ले ही लेना चाहिए?
सोचें... मैं तो एक आलोचक हूं... आलोचना मेरा कर्म और धर्म है ... पत्रकार का क्या कर्म और धर्म मुझे नहीं पता...
कुछ अटैचमेंट भी संलग्न हैं, जो आलोचना से उपजी जिज्ञासाओं को शांत करतें है.
(यह मेल हमें एक जागरूक पत्रकार से प्राप्त हुआ . इस बारें किसी को कोई आपति हो तो वे हमें mediamunch@gmail.com या फिर latikeshsharma@gmail.com पर मेल कर सकते हैं . )
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment