Wednesday, October 13, 2010



(गुरुवार /14 अक्टूबर 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )

'खिचड़ी' और 'दो दुनी चार'

पिछले दो हफ्तों में रिलीज़ हुई दो फिल्मों का दर्द एक साथ बयां करने का मन है। दर्द इसलिए कि एक ने ऐसा स्तर छुआ, जो अपनी बनावट में न जाने कितनी फिल्में नहीं छू पातीं और दूसरी का दर्द इस तरह कि उससे अपेक्षित स्तर तक वो पहुंच नहीं पाई।

तारीफ हो रही है सीरियल से फिल्म बनी 'खिचड़ी' की। और थोड़ी कम तारीफ हो रही है ऋषि और नीतू की कमबैक फिल्म 'दो दुनी चार' की।

तुलना ऐसी फिल्मों की, न तो बॉक्स ऑफिस के पैमाने पर होनी चाहिए और न ही इन छोटी फिल्मों के ज़रिए बड़ी बनती बाकी फिल्मों से। आतिश कपाड़िया और हबीब फैसल इन दोनों निर्देशकों को इन सब्जैक्ट्स पर फिल्म बनाने के लिए सबसे पहले सलाम इसलिए कि उन्होंने बड़े सितारों से आगे कुछ और देखने की जुर्रत की।

अपने मायनों में सितारें दोनों फिल्मों में हैं, एक में टीवी के और दूसरी में फिल्मों के बीते युग के। लेकिन दोनों कहीं केवल स्मृति में। ऋषि के साथ नीतू भले ही 'लव आजकल' के आखिरी सीन में दिखी ज़रूर हों लेकिन साथ तो दोनों इसी फिल्म 'दो दुनी चार' में आए। और आए क्या, ऐसा लगा ही नहीं कि कहीं गए भी थे। अपने जीवन ने उन्हें आज जो शक्ल दे दी है उसके मुताबिक अच्छा रोल मिल जाए तो कलाकार को और क्या चाहिए।

सबसे अच्छी बात ये कि फिल्म देखते हुए आप यह अहसास खो देते हैं कि आप ऋषि और नीतू कपूर को देख रहे हैं। आपको लगता है कि ये तो किसी भी पड़ोस में मिल सकने वाली एक पंजाबी फैमिली के मिस्टर और मिसेज़ दुग्गल हैं। कुछ इसी तरह के मज़बूत किरदार 'अंजाना अंजानी' में भी गढ़ लेते तो शायद फिल्म चलती।

खैर, इनके ज़रिए याद हो आएगी अपने उन सभी टीचर्स की, जिन्हें न जाने हम कब उसी स्कूल में फेयरवैल पार्टी के दिन फेयरवैल दे आए। पार्टी हमने की, लेकिन हमारे जीवन से फेयरवैल उनका हो गया। कुछ हम में से हिम्मत भले ही अब भी जुटा लें, स्कूल की उन निशानियों को दोबारा जी लेने की, लेकिन अधिकतर का टच, उन यादों से छूट सा गया है।

तो एक मैथ्स के टीचर की जिंदगी में झांकती फिल्म। अब खामी यहीं से शुरू। कारण यह कि निजी जीवन दिखाते दिखाते टीचर वाला एंगल कहीं खो गया। कहानी मैक्रोस्कोपिक से माईक्रोस्कोपिक मुद्दे में भटक गई। घटनात्मक तो रही कहानी, हुआ भी सब कुछ मुताबिक, लेकिन वो उंचाई जो फिल्म हासिल कर सकती थी केवल एक फिल्म के स्तर पर, वो नहीं कर पाई। इस कहानी के ज़रिए फिल्म यह भी अहसास दिलाती है कि कैसे हम हमेशा केवल अपने टीचर को ही जानते थे। हमारे लिए बस वो था सामने, बुरा या अच्छा। परिवार उसका, उसकी हसरतें और उनसे अनजान, उनको न समझ सकने वाले हम।

फिल्म कद में उंची भले ही न हो पर रोचक और रीयल है। 'देख लेनी चाहिए', ऐसा कह देने का मन है। कई चीज़ें फिल्म में नॉस्टैल्जिक कर देने वाली हैं। करीब के घर की कहानी सी हैं। कुछ अपनों की झलक देने वाली सी है। 'खोसला का घोसला' के स्तर के करीब पहुंचने की कोशिश की ज़रूर है पर सफल नहीं हो पाए, कहानी के कारण।

अब आईए 'खिचड़ी' की तारीफ कर लें। सीरियल के रूप में इस सदी के पहले दशक का एक करिश्मा कह दूं खिचड़ी को, तो गलत नहीं होगा। 2005 में इसके नाम की ऐसी धूम मची कि आज भी इसका जिक्र हो रहा है। किसी सीरियल का फिल्म बनाया जाना उपलब्धि के साथ साथ, उसके आज भी प्रासंगिक होने को उजागर करता है।

सीरियल के रूप में 'खिचड़ी' दर्शकों के लिए मोहताज नहीं रही। अब फिल्म के लिए मेरी राय है कि दर्शक इससे मोहताज न रहें। फिल्म में जयश्री भाभी, बाबूजी, हंसा, प्रफुल, हिमांशु और परमिंदर वैसे के वैसे हैं लेकिन ताना बाना इतना कसा हुआ कि हैरानी होती है कि कॉमेडी को पूरी फिल्म एक लय में चला पाना कितना मुकिल काम रहा होगा। कुछ डायलॉग याद कर लेना ज़रूरी हो आता है। बाबूजी कहते हैं कि 'जयश्री चाय लाती है या बाहर से मंगवाउं'। हंसा इंग्लिश भाषा को बाबूजी की नज़र में गधे प्रफुल के ज़रिए समझती है। जयश्री के वर्ल्ड बैस्ट आईडिया हर बार की तरह काम नहीं करते। शब्दों में मुश्किल हैं समझाना किरदारों की हरकतें जो बाद में स्टाईल बन गए। 'खिचड़ी' में हंसना ज़रूरी है। शुरू से लेकर अंत तक कॉमेडी 'खिचड़ी' स्टाईल में, क्लाईमेक्स में मर्डर भी कॉमिक। और क्या जान लोगे!

नए दर्शकों के लिए भी उतनी ही नई, जितनी पुराने दर्शकों के लिए पुरानी। ख़ुशी की बात यह कि खाने वाली खिचड़ी की तरह पूरी तरह वैजिटेरियन है खिचड़ी की कॉमेडी। इन दो फिल्मों को सिनेमाघर में न देख पाए हों तो टीवी पर जब ये आएं तो ज़रूर देखें

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