Saturday, November 20, 2010


फिल्म रिव्यू
गुज़ारिश
(सौरभ कुमार गुप्ता / नई दिल्ली )
इस बार रिव्यू पढ़ने से पहले मन में एक जवाब तलाश करें। बात इस बार दर्शकों की पहले करेंगे फिल्म की नहीं। खुद से ये सवाल पूछें कि आप अच्छे दर्शक हैं या खराब दर्शक। खराब हैं तो इस फिल्म पर भी समय खराब करने की शायद आपको ज़रूरत नहीं। खराब दर्शक फिल्म को मौका नहीं देते कि वो कुछ कह पाए, कर पाए।

खैर गुज़ारिश अच्छे दर्शक के लिए बनी उतनी अच्छी फिल्म भी नहीं है जितनी और हो सकती थी। साथ ही उतनी बुरी भी नहीं जितनी किसी खराब दर्शक को लग सकती थी।

फिल्म में छिपी बोरियत और कुछ कुछ अटपटेपन से सचेत और डरने वालों के लिए ये दिलासा दिया जा सकता है कि भंसाली की 'गुज़ारिश' उनकी 'सांवरिया' से न केवल काफी कम बोरियत आपकी झोली में डालती है। बल्कि आपको एक कहानी के अच्छे अंत का अहसास भी दिलाती है। यहां मैं साफ कर दूं कि हर फिल्म सफल और कमाऊ नहीं हो सकती। कुछ फिल्मों के नसीब में खूबसूरत, भावनात्मक, शांत और थोड़ा अलग होना लिखा होता है।

ऐसा लगता है कि भंसाली ने ये मान कर फिल्म बनाई है कि वो 2010 की फिल्म बना रहे हैं, जब अच्छे दर्शकों की संख्या पहले के मुकाबले बढ़ गई है। वो फिल्म को धंधा नहीं बल्कि कला मानकर चल रहे हैं।

सीधे रुख अब फिल्म की ओर। फिल्म में जोधा-अकबर हैं जिन्होंने धर्म बदल लिया है और अब ईसाई हो गए हैं। यानि ऐश्वर्या और रितिक के बीच प्यार यहां भी बेहद आंतरिक, अलग और पाक अंदाज़ में तैरता है।

फिल्म किसी कोर्ट केस पर नहीं है, फिल्म किसी जादूगर के जीवन पर भी नहीं है, फिल्म कोई जादू का शो भी नहीं है। न इसमें कोई जीत जाता है, न इसमें कोई हार पाता है। फिल्म केवल एक लव स्टोरी है जिसमें बाकी चीज़ें उसके इर्द-गिर्द घूमती हैं और कई जगह फिल्म में ये बाकी चीज़ें उस प्रेम कहानी को कहीं दूर पीछे धकेलती हुई, आपके ज्यादा सामने आ जाती हैं। इस तरह भ्रम की स्थिति पैदा होती है और यही वो भ्रम की स्थिति है जिससे भंसाली खुद बाहर नहीं निकलना चाहते। साथ ही रोचक यह भी कि वो भ्रम ही है जो इस जोड़ी के प्यार को और रूमानी बनाता है, मैजिक जोड़ता है, वो स्तर देता है जिससे उसके नए मायने गढ़े जा सके।

हीरो की छवि के विपरीत रितिक का किरदार। हीरोईन की मौजूदा रिझाने वाली इमेज की उलट ऐश्वर्या। बाकियों का ज़िक्र गैर ज़रूरी। हीरो का किरदार कहानी में व्हीलचेयर पर बैठ मज़बूत तन से नहीं, दृढ मन से लड़ता है। वो जीतता नहीं हारता है। समाज चाहता है कि वो जीता रहे तकलीफें झेलकर, उसकी इच्छामृत्यु की मांग ठुकरा दी जाती है। फिल्म देखते देखते अगर आप यह भूल जाएं कि हमारे सामने रितिक नहीं वही किरदार है तो बताना ज़रूरी नहीं कि रितिक ने अच्छी एक्टिंग की है।

नर्स के रूप में हीरों का साथ निभाने वाली ऐश्वर्या की इस साल की तीसरी फिल्म और अदाकारी बिल्कुल सटीक, किरदार के मुताबिक। बताना ज़रूरी है कि एक गाने में फिल्म की रफ्तार और किरदार के मुताबिक ऐश्वर्या आपको सरप्राईज़ भी करती हैं उम्दा डांस के साथ। खूबसूरती ऐश्वर्या स्टाईल। पारखी नज़र भंसाली स्टाईल।

भंसाली बेहद बेमिसाल और खूबसूरत तस्वीर तो गढ़ लेते हैं स्क्रीन पर, लेकिन लगता है उसमें कहीं कहीं जान डालना भूल जाते हैं। आपको ऐसा गोवा दिखा देते हैं जो किसी फिल्म में शायद ही अब तक फिल्माया गया हो। अगर कहूं कि फिल्म देखते हुए कुछ जगह यूं मन कर आया कि वक्त यहीं थम जाए और मैं यह सीन देखता रहूं या फिर मेरे हाथ में रिमोट हो और मैं उस जगह पॉज़ का बटन दबा दूं तो इसे निर्देशक, सिनेमाटोग्राफर और फिल्म के पीछे के हर आदमी की कामयाबी ही कहा जाएगा।

मतलब ये कि भंसाली जैसे फिल्मों को नया अर्थ दे रहे हैं, वो एक पेंटर हैं। उनके गढ़े फिल्मी चित्रों में संवाद, संगीत, पटकथा और कुछ हद तक कलाकार भी बस केवल एक हल्का सा रंग हैं। वो अच्छी तस्वीर को और अच्छा हो जाने में बस मदद भर करते हैं।

फिल्म में कुछ भी इंस्टेंट नहीं है। बल्कि ऐसा लगता है कि सब कुछ कॉन्सटेंट हैं कुछ कुछ जीवन और उसकी चाल की तरह। फिल्म जीवन की तरह ही समय समय पर थोड़ी सी बेवकूफ और थोड़ी समझदार होती नज़र आती है।

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