Saturday, February 19, 2011




सौरभ की समीक्षा -- फिल्म '7 खून माफ'
(सौरभ कुमार गुप्ता / नई दिल्ली )


ज़बरदस्त। कोई और उपयुक्त शब्द नहीं सूझ रहा था। समीक्षक को निर्देशक अगर फिल्म का प्रचारक बनने पर मजबूर करता सा दिखे तो उसका नाम विशाल भारद्वाज ही हो सकता है। तमाम बहाने छोड़ फिल्म का टिकट खरीद लें तो सौभाग्य आपका ही होगा। चालाक फिल्म।

हिंदी सिनेमा में नया इतिहास गढ़ती हुई दिखती, उसे नए मायने मुहैया करवाती और एक हिराईन को कुछ ऐसा करने का मौका देती फिल्म, जो इससे पहले इस तरह मुमकिन न हो पाया।

फिल्म में न जाने कितनी जगह पसरा मातम थोड़ा गुदगुदाता है। फिल्म रूलाती नहीं, डराती नहीं, हंसाती भी नहीं। केवल छोटी छोटी कहानियों के ज़रिए एक अनजाना रोमांच पैदा करती है। इन सब कहानियों का अंत भले ही पता हो लेकिन उनका ज़रिया, मकसद और वजह ही सुज़ाना के किरदार में रोमांच बरकरार रखता है।

फिल्म किसी शोले या दबंग का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड नहीं तोड़ेगी। पर दर्शक के मन में अपना अलग रिकॉड बनाएगी। कुछ ऐसा दिखा जाएगी जो न जाने अब तक कहां था। दर्शक का मन करता है कि वो अभी इसी वक्त कोई न कोई अवार्ड दे डाले फिल्म को।

रोचक कहानी को अभिनय और निर्देशन की सच्ची कोशिश के ज़रिए थोड़ा और जीवंत बनाती फिल्म। हर फ्रेम जैसे पहले से सजाया, तरीके से फिल्माया सा लगता है। दर्शक को महज़ कुर्सी पर बैठ देखते रहने के अलावा निर्देशक का प्रयास थोड़ा उसके सोचने की ओर भी।

एक मायने में पीरियड फिल्म--एक तय समय की कहानी। करीब 30 सालों की दास्तान, जिसमें सरकारों का गिरना, बाबरी विध्वंस, परमाणु परीक्षण और कंधार हाईजैक किरदार के जीवन के ही हादसे जैसे नज़र आते हैं। किरदार के जीवन का सफर इनके ज़िक्र के साथ ही हादसे दर हादसे आगे बढ़ता है।

फिल्म अपने टाईटल से सुलझी हुई होने का भ्रम पैदा करती है। न फिल्म में किरदारों की मौत उतनी सहज है और न ही उनकी हत्या का भावनात्मक मकसद। खुले अंत पर दर्शक को लाकर छोड़ती फिल्म, जो चर्चा को जन्म देता है।

फिल्म के ढाँचे में अगर किसी चीज़ ने बेहद अहम रोल अदा किया तो वो है फिल्म की कास्टिंग। हर किरदार अपने रोल के हिसाब से चुस्त, खास चुना गया, बारीकी से तराशा गया। याद नहीं आता कौन ऐसा है फिल्म में जिसकी तारीफ आप नहीं करना चाहेंगे। हर किरदार अपनी कहानी में थोड़ा अचरज लिए।

पहले सीन में खत्म सी होती फिल्म, शुरू भी वहीं से होती है और अंत भी दिखा जाती है। फिल्म के बाद भी सुज़ाना का किरदार याद आता है, मुस्कुराहट के साथ। ' कभी देखी है ऐसी फिल्म ' विशाल भारद्वाज अगर प्रमोशन में इसे फिल्म की टैगलाईन रख देते तो शायद ही कोई इसे गलत कह पाता।

इस फिल्म को पैसे फिजूल में खर्च करवाने के लिए माफ नहीं करना पड़ेगा। शादीशुदा हैं तो बीवी के साथ फिल्म न देखें। मुमकिन है ऐसा करने से थोड़ा ज्यादा जी पाएंगे।

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