अखबारों का क्या दोष है ? अगर डेढ़-दो घंटे की पत्रकार परिषद में आप कोई काम की बात नहीं बोलेंगे तो वही होगा, जो आज अखबारों ने किया है| अगर आप खबर नहीं देंगे तो वे अ-खबर को खबर बनाएंगे| इसीलिए लगभग हर अखबार ने प्रधानमंत्री की पत्र्कार परिषद पर यही खबर बनाई है कि मैं राहुल के लिए गद्दी छोड़ने को तैयार हूं या अपना काम पूरा किए बिना रिटायर नहीं होऊँगा| ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं|
देश के आम आदमी को इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठता है ? बिल्ली काली है कि गोरी है, इसका खास महत्व नहीं है| असली सवाल यह है कि वह चूहा मारती है या नहीं ? असली सवाल यह है कि देश को मंहगाई से छुटकारा कब मिलेगा ? नक्सलवादी और आतंकवादी हिंसा रूकेगी या नहीं ? क्या 80 करोड़ लोग सिर्फ 20 रू. रोज पर गुजारा करते रहेंगे ? प्रशासन के पोर-पोर में बसे भ्रष्टाचार के विरूद्घ कोई ठोस कार्रवाई होगी या नहीं ? कुलीनतंत्र् की गिरफ्त में फंसे लोकतंत्र् में कुछ बुनियादी सुधार होंगे या नहीं? विश्व-राजनीति में क्या भारत की कोई स्पष्ट भूमिका है ? अपने दक्षिण एशियाई अड़ोस-पड़ौस में चल रही उथल-पुथल को क्या हम मूक दर्शक की तरह देखते रहेंगे ? क्या सत्तारूढ़ दल और सरकार के पास कोई ऐसा कार्यक्रम है, जिसके आधार पर वह देश के नागरिकों को हिला-डुला सकें ?
इन सब प्रश्नों के प्रधानमंत्री ने जो जवाब दिए, वे इतने ठंडे और बाबुआना अंदाज में थे कि वे आम जनता को उत्प्रेरित क्या करते ? ज़रा तुलना करें, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की पत्रकार-परिषदों से ! राजीव तो नए और अनुभवरहित थे लेकिन उनमें भी लीडराना अंदाज़ पैदा हो गया था| मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की गद्दी पर 6 साल से इस तरह बैठे हुए हैं, जैसे राम की खड़ाऊ रखकर भरत अयोध्या का राज चला रहे हों| शायद यही उनके चलते चले जाने का रहस्य है| सत्तारूढ़ दल की अध्यक्षा और प्रधानमंत्री के बीच आजकल जैसी उलट जुगलबंदी चल रही है, कांग्रेस के इतिहास में पहले कभी नहीं चली| यों तो कांग्रेस का प्रधानमंत्री और अध्यक्ष प्राय: एक ही व्यक्ति रहता आया है लेकिन जब भी ये दो पद दो व्यक्तियों के पास रहे हैं तो अध्यक्ष की हैसियत हाथी की पीठ पर लटकी झूल से ज्यादा नहीं रही है| इतिहासकारों और कुछ पत्रकारों के अलावा आम जनता को उन अध्यक्षों के नाम भी याद नहीं हैं| आज का सत्य यह है कि भारत में शक्ति का केंद्र प्रधानमंत्री नहीं, पार्टी-अध्यक्षा हैं| आज अध्यक्ष और प्रधानमंत्री अपनी-अपनी मर्यादाओं का जिस निष्ठा से पालन कर रहे हैं, वह दुनिया के किसी भी लोकतंत्र् के लिए अजूबा ही है|
लेकिन इस मर्यादा-पालन का लाभ क्या है ? आज देश में नेतृत्व का अभाव-सा लगता है| यदि विपक्ष शक्तिशाली होता तो सरकार अपने पंजों पर दौड़ रही होती ! अपनी पिछली पारी में भी कांग्रेस को विपक्ष कोई जबर्दस्त चुनौती नहीं दे पाया लेकिन उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टियाँ सहयोगी के तौर पर लगाम कसे हुए थीं| इस दूसरी पारी में जिनके सहयोग से कांग्रेस सत्ता में टिकी हुई है, वे दल और नेता इतने बोदे है कि सीबीआई का स्क्रू कसते ही वे सलामी की मुद्रा में आ जाते हैं| कट-मोशन के समय दिखाई पड़ी भाजपा-कम्युनिस्ट एकता भी क्षणिक हैं| उसमें से कोई जन-आंदोलन नहीं उपज सकता| ऐसी स्थिति में ज्यादा संभावना यही है कि कांग्रेस-गठबंधन की सरकार ने जैसे पिछला एक साल बिताया, वैसे ही अगले चार साल बिताकर वह छुट्टी पाने की कोशिश करे| कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की तरह कांग्रेस भी 'इंडिया शाइनिंग' के चक्कर में फंस जाए|
कांग्रेस और भाजपा दोनों का 'इंडिया' एक ही मालूम पड़ता है| दोनों पार्टियों के ड्राइंग रूम नेता 'इंडियन शाइनिंग' की चकाचौंध में फंसे हुए हैं| पिछली पारी में कांग्रेस-गठबंधन सरकार ने अनेक चमत्कारी कदम उठाए थे| जैसे ग्रामीण रोजगार, सूचना का अधिकार, जंगल-रक्षा, किसान ऋण-मुक्ति आदि लेकिन हुआ क्या ? ये सारी जन कल्याणकारी योजनाएँ भ्रष्टाचार का शिकार हो रही हैं| कांग्रेस और गैर-कांग्रेसी राज्यों सरकारों के कर्मचारी ग्रामीण रोजगार की करोड़ों की राशि पर हाथ साफ़ कर रहे हैं, आदिवासी अपने जंगलों को खोते जा रहे हैं, हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अर्थ-व्यवस्था की छलांग का लाभ 80-90 करोड़ लोगों तक पहुंच नहीं पा रहा है| इसके अलावा सूचना के अधिकार में भी जजों को छूट दी जा रही है, मंत्रियों के परामर्शों और निर्णयों पर पर्दा डाला जा रहा है और शासन-तंत्र् को जनता की जानकारी के लिए पूरी तरह से खोला नहीं जा रहा है| इसका एक मूल कारण यह भी है कि सरकार और जनता के बीच कोई सीधा सबल सेतु नहीं है| सारा देश सिर्फ नौकरशाही पर निर्भर है| हमारे राजनीतिक दल सिर्फ चुनाव लड़ने की मशीनें बन गए हैं| अगर ऐसा नहीं होता तो माओवादियों को सफलता कैसे मिलती ? उनसे निपटने का अचूक उपाय हमारी सरकारों के पास कहीं दिखाई नहीं देता| हमारे नेताओं के पास इच्छा-शक्ति और जन-शक्ति दोनों का अभाव है| केंद्र सरकार तो इतनी कमज़ोर है कि उसने जन-गणना में जाति को जोड़ने का घृणित दबाव भी स्वीकार कर लिया| प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को दुबारा खोल दिया, अच्छा किया| तेलंगाना, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, महिला आरक्षण आदि मुद्रदों पर सरकार के विचारों में केाई स्पष्टता नहीं है| उसे यह भी ठीक से पता नहीं कि देश के सब बच्चों को वह पढ़ाएगी कैसे ? साधन कहां से लाएगी ? दो तरह की शिक्षा क्या अनिवार्य शिक्षा का मज़ाक-सा नहीं बना देगी ? हमारे सभी नेता इस सर्वग्रासी मुद्रदे से भी बिल्कुल बेखबर मालूम पड़ते हैं कि अंग्रेजी भाषा के बढ़ते हुए असर ने हमारी शिक्षा, न्याय, चिकित्सा, सामाजिक समरसता, आर्थिक समता और राष्ट्रीय मौलिकता को मंद कर दिया है| कोई भी गहरे में नहीं उतरना चाहता| इस भौतिकतावादी पूंजी-प्रवाह में राज्य की विचारधारा तो लुप्त हो ही गई है, अब विचारों का भी टोटा बढ़ता चला जा रहा है| यदि एक अर्थशास्त्री नौकरशाह प्रधानमंत्री अपनी बेबसी प्रकट करता है और आर्थिक मुद्दों पर भी देश को प्रेरित नहीं कर पाता है तो इसमें आश्चर्य क्या है ? उन्होंने कुछ बोला, क्या यह काफी नहीं ?
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