सत्ता हासिल करने के लिए क्या कुछ नहीं होता, इसे देखने के लिए प्रकाश झा की 'राजनीति' जरुर देखनी चाहिए। सत्ता हासिल करने के लिए घात-प्रतिघात और विश्वासघात का घिनौना खेल कैसे खेला जाता है, इसकी बानगी 'राजनीति' में देखी जा सकती है। फिल्म यह भी बताती है कि कैसे परिवार पर आधारित राजनैतिक दल केवल परिवार के बपौती बनकर रह जाते हैं। परिवार के लोग सत्ता हथियाने के लिए एक दूसरे का खून बहाने से भी गुरेज नहीं करते। फिल्म को रोचक बनाने के लिए फिल्म में कुछ घटनाएं ऐसी दिखयी गयी हैं, जिन्हें दिल और दिमाग मानने के लिए तैयार नहीं होता। लेकिन प्रकाश झा यह बताने में कामयाब रहे हैं कि राजनीतिज्ञों के दिलों में आम आदमी केवल वोट अलावा कुछ नहीं है। सत्ता के आगे भावनाएं गौण हो जाती हैं। तभी तो एक अरबपति बाप पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देने के एवज में अपनी लड़की की शादी उस लड़के से करता है, जिसे प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री माना जाता है। लड़की किसे अपना जीवन साथी बनाना चाहती है, बाप के लिए इसकी अहमियत नहीं है। फिल्म यह भी बताती है कि टिकट ही नहीं बिकते है, बल्कि चुनाव जीत ती दिखने वाली पार्टी से गठबंधन करने वाली पार्टी को कुछ सीटें लेने के लिए भी पैसा देना पड़ता है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि हालात उस आदमी को सत्ता के शीर्ष पर ले जाते हैं, जिसने कभी राजनीति में आने की सोची भी नहीं थी। यहां प्रकाश झा ने उन हालात को क्रियेट किया, जिन हालात के तहत इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव bv गांधी देश के प्रधानमंत्री बन गए थे।
फिल्म के प्रोमो में दिखाया जा रहा वह सीन, जिसमें कैटरीना कैफ सोनिया गांधी स्टाइल में भाषण देती है, फिल्म के अंत में केवल दो मिनट का है। यह अच्छी बात रही कि फिल्म में गाने नहीं है, वरना फिल्म की गति में बाधा आती। इसमे कोई शक नहीं कि फिल्म के प्रत्येक फ्रेम में प्रकाश झा की मेहनत झलकती है। बात अगर करें फिल्म के कलाकारों की तो इतना ही कहा जा सकता है कि नसीरुद्दीन शाह, मनोज वाजपेयी, नाना पाटेकर, अर्जुन रामपाल, अजय देवगन जैसे मंझे हुए कलाकारों ने फिल्म को शानदार बना दिया है। प्रकाश झा का निर्देशन कमाल का है। कैटरीना कैफ दिन प्रतिदिन अदाकारी के नए आयाम बना रही हैं। रणबीर कपूर ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है। सिर्फ एक बात की खलिश आखिर तक रही। नसीरुद्दीन शाह को बहुत छोटा से किरदार दिया गया है, वह भी फिल्म की शुरुआत में। हॉल में देर से पहुंचने वाले दर्शकों को तो उनका रोल देखने को ही नहीं मिला। दर्शक फिल्म के अंत तक नसीरुद्दीन शाह की रि-एन्ट्री का इंतजार ही करते रहे।
जब मैं अपने मित्र धर्मवीर कटोच के साथ फिल्म देखने निकला था तो मैंने कहा था कि देख लेना हॉल में बीस-पच्चीस से ज्यादा दर्शक नहीं होगे। लेकिन मैं गलत साबित हुआ। पहला शो ही हाउसफुल गया। और जब दर्शक फिल्म देखकर हॉल से बाहर निकले तो सबके चेहरे बता रहे थे कि उनके पैसे जाया नहीं हुए। एक खास बात और थी, दर्शकों में उनकी संख्या ज्यादा थी, जो परिपक्व थे। मल्टीप्लेक्सों में हाथ में हाथ डाले फिल्म देखने जाने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या नगण्य थी। इससे पता चलता है कि उन लोगों की संख्या भी बहुत ज्यादा है, जो गम्भीर फिल्म देखना पसंद करते हैं।

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