Friday, June 4, 2010

'राजनीति' : प्रकाश झा की महाभारत
(शुक्रवार /04 जून 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नोएडा )
एकता कपूर के महाभारत को छोटे पर्दे पर दोबारा लेकर आने के विफल प्रयास से कोई सबक न लेते हुए, प्रकाश झा ने महाभारत को अपनी फिल्म 'राजनीति' के रूप में बड़े पर्दे पर उतार दिया है। दर्शक खुद से पूछता है कि मुझे अगर टिकट खरीदकर महाभारत ही देखनी थी तो क्यों न मैं स्टार उत्सव पर शाम को बी आर चोपड़ा की महाभारत देख लेता?

ऐसा लगता है कि फिल्म एक नहीं बल्कि दो प्रकाश झा ने बनाई है। फिल्म का पहला हाफ उन प्रकाश झा ने बनाया है जिन्हें हम 'मृत्युदंड', 'गंगाजल' और' अपहरण 'जैसी फिल्मों के फिल्मकार के रूप में जानते हैं। यानि फिल्म का आधा हिस्सा शानदार है। लेकिन दूसरा हाफ आज के नए प्रकाश झा ने बनाया है। ये वो प्रकाश झा हैं जो चुनावी मैदान में उतर चुके हैं, फिल्म की मार्केट के नफा-नुकसान को समझते हैं।

जहां फिल्म का पहला हाफ आपको बांधकर रखता है और दूसरे हाफ के लिए मन में उत्सुकता पैदा करता है वहीं दूसरा हाफ जलती हुई आग पर जैसे पानी की बाल्टी डालने जैसा है। दूसरे हाफ में फिल्म आपको कहानी नहीं बताती बल्कि आपको अपनी बगल वाले को आगे की कहानी बताने के लिए सक्षम करती है। यहां मैं बता दूं कि इंटरवल के बाद आने वाले इमोशनल सीन में हास्य का पुट बेहद छुपे अंदाज़ में आपको मिलेगा।

इंटरवल के बाद फिल्म में इस रफ्तार से साजिशों का दौर चलता है मानो फिल्म आज के राजनैतिक हालात से नहीं, बल्कि देश की आने वाली राजनीतिक पीढियां इस फिल्म से प्रेरणा ले सकती है। शायद यही फिल्म की असल समस्या भी रही। निर्देशक ने फिल्म रूपी थाली में सभी व्यंजन परोसने चाहे। कुछ छूट न जाए इसलिए फिल्म के ठीक अंत में ऐसा लगा कि मानो डायरेक्टर को याद आया कि यार एक्शन डालना तो भूल ही गए तो चलो हीरो से अपने बाप की मौत का बदला ही दिलवा दें।

भारत में किसी राज्य में चुनाव को लेकर राजनैतिक दलों में जितनी भी साजिशें रची जा सकती हैं वो सब आपको इस फिल्म में मिलेंगी। अगर कहा जाए कि चुनावी साजिशों के मामले में फिल्म आपके मन की हर मुराद पूरी करेगी तो गलत न होगा। फिल्म आपको रामगोपाल वर्मा की ' सरकार', 'सरकार राज 'और कुछ सीन में 'गॉडफादर' की याद दिलाएगी। आपको याद आएगा कि किस प्रकार हीरो विदेश से आता है, खुद को प्यार करने वाली हिंदुस्तानी लड़की को प्यार नहीं कर पाता, फिर किन हालातों में वापस नहीं जा पाता, फिर कैसे उसी लड़की को अपनाता है, कैसे किसी किरदार का गाड़ी में फिट बम के फटने से रोल खत्म हो जाता है। कैसे एक परिवार की कहानी के आगे फिल्म यह भूल जाती है कि समाज में लोग और पुलिस भी होते हैं।

फिल्म में डायरेक्टर भी भूल जाता है कि वो महाभारत बना रहे हैं या फिल्म को महाभारत से प्रेरित करवा रहे हैं। अब वो फिल्म संभालें या फिल्म में महाभारत जोड़ने के कारण कहानी के भीतर की महाभारत को संभालें। डायरैक्टर के भीतर का द्वंद फिल्म में साफ झलकता है। फिल्म का प्रोमो के जिन कारणों से आपको उत्सुक करता है फिल्म में वही सीन्स सबसे आखिर में बेहद गैर प्रभावाली और गैर ज़रूरी अंदाज़ में दिखाए गए हैं.

तो आखिर में बात आती है कि प्रकाश झा की राजनीति देखकर आपको क्या मिलेगा? और सबसे ज़रूरी क्या नहीं मिलेगा?
आपको एक टिकट के खर्च में एक ही फिल्म में इतने सारे सितारे देखने को मिलेंगे। लगभग सभी का अच्छा अभिनय देखने को मिलेगा। एक कसी हुई कहानी की शक्ल में पहला हिस्सा देखने को मिलेगा। कैसे महिलाएं राजनीति में एक मोहरे की तरह इस्तेमाल होती हैं यह भी बेहतरीन ढंग से उजागर होगा। महाभारत का वो सीन देखने को मिलेगा जिसमें कुंती अपने पहले पुत्र अजय देवगन रूपी कर्ण से कवच और कुंडल मांगती हैं। नाना पाटेकर रूपी भगवान श्री कृष्ण का रणबीर रूपी अर्जुन को दिया गया गीता सार सुनने को मिलेगा।

अब जो कुछ नहीं मिलेगा वो है एक शानदार शुरूआत के बाद मज़बूत अंत। कम साजिशें जिससे कहानी पर पकड़ मज़बूत रहती और दर्शक भी कम हताश होता। तुरंत चुनाव की घोषणा के बावजूद दर्शक को अंत तक विनती करनी पड़ती है कि अब और साजिशें नहीं चुनाव करवाओ। जब सिनेमा के बाहर गेट पर खड़ा गार्ड भी यह जान चुका था कि फिल्म में चुनाव कौन जीतेगा तब अचानक कैटरीना का चुनावी मैदान में उतरकर जनता से यह पूछना कि बताईए आप चुप क्यों हैं, बेहद हास्यास्पद लगता है। जवाब में कोई कह भी सकता था कि मैडम सभा का माईक तो आपके पास है, जनता के पास नहीं।

'राजनीति' देखने का मन बना ही लिया है तो आप यह फिल्म उसमें मौजूद सर्वगुण संपन्न रणबीर कपूर, हमेशा खूबसूरत लगने वाली कैटरीना और कभी कभी पर्दे पर साथ दिख रहे नाना पाटेकर अजय देवगन की वजह से देख सकते हैं।

कुछ रोचक बातों का जिक्र लाज़मी बन पड़ा है। रोचक है बाहरी रूप से दो की पॉलिटिक्स से खुद को दूर बताने वाली जनता इस पर बनी फिल्म के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देती है? फिल्मों का यह कौन सा युग है जहां प्रकाश झा महाभारत दिखाते हैं और दो हफ्ते बाद मणि रत्नम 'रावण' के जरिए रामायण दिखाएंगे। ज़ाहिर है महाभारत में कर्ण बने पंकज धीर, कृष्ण बने नितीश भारद्वाज, रामायण के राम अरूण गोविल और सीता दीपिका की याद सहसा हो आती है।

मैं बताना भूल ही गया कि फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं, शायद डायरेक्टर भी उन्हें कुछ मिनट बाद भूल ही गए।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता नोएडा में एक न्यूज़ चैनल में कार्यरत है और मीडिया मंच के लिए ख़ास तौर से फ़िल्मों की समीक्षा करते हैं )

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