
फिल्म समीक्षा --" Once Upon a Time in Mumbai" - सौरभ कुमार गुप्ता
(शुक्रवार /30 जुलाई 2010 /सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
तमाचा नं 1, तमाचा नं 2 और फिल्म में न जाने कितने अनगिनत तमाचे खाने के बावजूद भी अगर किसी को एक्टिंग न आए तो इसमें हमारा क्या दोष? इशारा इमरान हाशमी की ओर। और इन्हीं में से एक तमाचा हमसे हमारा हीरो छीन लेता है।
लेकिन यह सब बाद में और पहले अजय देवगन। कितने टाईम बाद अजय देवगन को एक लंबे संजीदा किरदार में देखने की हसरत पूरी हुई। यह हसरत प्रकाश झा की फिल्म राजनीति को महाभारत में तब्दील करने की कोशिश में अधूरी रह गई थी। अजय देवगन यानि वो नाम जो कॉमेडी में भी उतना ही जमता है जितना सीरियस रोल में।
साल की यह पहली फिल्म रही जिसमें डायलॉग की अहमियत डायरेक्टर ने समझी। मज़बूत किरदार गढ़े । रजत अरोड़ा ने फिल्म के मुताबिक ज़बरदस्त डायलाग लिखे हैं। फिल्म कागज़ पर भी उतनी ही मज़बूत लगती है जितना कि पर्दे पर। लेकिन इतनी सारी तारीफ के बाद अगर फिल्म की सीधी सपाट कहानी का जिक्र न हो तो गलत होगा। फिल्म में कुछ घटता है और फिर कुछ घटते-घटते जैसे कुछ रह जाता है। हर बार कुछ होते-होते फिल्म अलग दिशा पकड़ लेती है।
दो हीरो, दो ही उनकी प्रेम कहानियां, दो ही अच्छे गाने, दो ही किरदार याद करने योग्य। दो का गज़ब संयोग बना है फिल्म में। प्राची देसाई और कंगना के कॉस्ट्यूम्स, इमरान का पहनावा और फिल्म की हर प्रापर्टी कहानी के 70-80 के दशक में घटे होने का सबूत पेश करती है।
कहानी में सू़त्रधार की भूमिका निभाने का काम किया है पुलिसवाले के रोल में मौजूद रणदीप हुड्डा ने। पुलिस का रोल फिल्म में ठीक वैसा है जैसा सत्तर के दशक में हुआ करता था। यानि फिल्म में सब कुछ हो जाने के बाद अंत में तसल्ली से पहुंचना। पुलिस के इर्द-गिर्द कहानी का एक हिस्सा बुनने के नाकाम कोशिश करने से भी डायरेक्टर नहीं चूके।
फिल्म की कहानी हाजी मस्तान की जीवनी है। उसका बचपन, जवानी, मोहब्बत, स्मगलिंग का उसका गौरवशाली इतिहास, राजनीति में उसका आना और भला इंसान होना, सब दिखाया है फिल्म में। फिल्म में गोली कम और डायलॉग ज्यादा चले हैं। एक गैंगस्टर-स्मगलर फिल्म होने के बावजूद कहानी एक्शन की बजाय रिश्तों के तानेबाने पर ज्यादा टिकी नज़र आती है। नेगेटिव हीरो के पॉसीटिव बने रहने की दास्तान अगर कभी पर्दे पर उतारने में कोई अव्वल नंबर पर आएगा तो वो अजय देवगन ही होंगे।
अब जब फिल्म बेहद सपाट ढंग से हाजी मस्तान के इर्द-गिर्द घूमती है तो ऐसा लगा कि अंत भी कुछ उसी तर्ज़ पर करना डायरेक्टर की मजबूरी हो गया। गाने दो ही अच्छे हैं, बाकी दो ज़बरदस्ती डाले हुए लगते हैं। राम गोपाल वर्मा की कंपनी, सरकार की याद थोड़ी ताज़ा हो आए तो कोई ताज्जुब नहीं।
फिल्म देखने का मकसद अजय देवगन, प्राची देसाई, थोड़ा-बहुत इमरान, उससे और थोड़ा कम कंगना, पिछले दशकों की लुक और पूरी तरह डायलॉग हो सकते हैं।
रोचक बात यह कि फिल्म देखने के बाद न तो किसी दोस्त को यह कहने का मन करेगा कि 'मत देखो यह फिल्म' और न ही किसी को यह कह पाएंगे कि 'ज़रूर देखो यह फ़िल्म '।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)
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