
'सोच लो'--फिल्म समीक्षा
(शनिवार /28 अगस्त 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
इस बार रिव्यू से पहले फिल्मों से जुड़ी एक त्रासदी का ज़िक्र। फिल्म चाहे किसी की हो बिना सही डिस्ट्रीब्यून और मार्केटिंग के मार खा जाती है। त्रासदी पुरानी है अहसास नया। ऐसे में अगर कोई बिना किसी बैनर की मदद के अपने दम पर फिल्म बनाए तो क्या कहने।
बात इस हफ्ते न चाहते हुए भी एक ऐसी फिल्म की जिसको अच्छा कह भी दूं तो कोई फायदा इसलिए नहीं क्योंकि वो इतनी जगह सिनेमा पर लगी ही नहीं कि आप उसे देख पाएं।
समीक्षा
सोचा है इस फिल्म की थोड़ी तारीफ करने के बारे में, सोच लिया है इस फिल्म के बेहद अलग संगीत के बारे में, अच्छा अभिनय करते इसके कलाकारों के बारे में भी सोचा है। लेकिन निर्देशक, लेखक और फिल्म के हीरो सरताज सिंह ने नहीं सोचा इसके वितरण और प्रचार के बारे में। फिल्म सिवाय इसके और कहीं मार नहीं खाती।
सोचा था सच में कि फिल्म खुद अपना मज़ाक उड़वाएगी, सोचा था कि ऐसा कुछ होगा कि बेवकूफियां देख हंसकर अच्छा मनोरंजन हासिल होगा। सोचा था कि क्यों आ गया शाम खराब करने।
खैर, फिल्म देखी, बेहतरीन कोशिश लगी, इसलिए तारीफ बनती है। अपना मन भले ही कमज़ोर था फिल्म देखने से पहले, लेकिन शायद निर्देशक का नहीं। उसने सारी स्थिति जानते हुए फिल्म बनाई और दिखाई भी। अब आगे।
हीरो का नाम फिल्म में एक बार आता है उसकी लौटी हुई याददाश्त की तरह। लेकिन बार बार सामने आता है फिल्म के रूप में वो प्रयास, जो मन में भाव पैदा करता है कि फिल्म ठीक चल रही है।
चारू मोहन, नितीश प्राईस और महबूब के म्यूज़िक की तारीफ किए बिना नहीं रह पाएंगे। सोचेंगे कि कहीं मार्केट से खरीदकर गाड़ी में सुनूं लेकिन म्यूज़िक भी तो अलग से नहीं लांच किया गया। मजबूरी है। केवल सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट्स के ज़रिए प्रमोट होती फिल्म।
फिल्म थ्रिलर होने की राह पर आगे बढती है और अहसास कराती है कि अच्छी या तारीफ करने लायक फिल्म कैसी हो, इसका कोई फॉर्मूला नहीं। खोई याददाश्त, खोई बीवी, खोई पहचान और नए प्यार को पाकर फिर खो देने जैसे अहसास की दास्तान है फिल्म।
फिल्म काईट्स जैसा पोस्टर, हल्की सी रावण जैसी कहानी, हीरो में गज़िनी फिल्म का पुट और एकदम नए कलाकार। राजस्थान की लोकेशन, निजी संबंधों का ताना बाना, कम संवाद, फिल्म के साथ साथ कलाकारों का ठीक लुक। फिल्म मुंबई की रूटीन फिल्मों से थोड़ा अलग दिखाई सुनाई पड़ती है। ढर्रे पर न दौड़ती हुई।
सिनेमा, उसकी विधा अपने आप में भी रोमांच महसूस करवा सकता है। इंडिपेंडेंट फिल्मों का दौर नए सिरे से शुरू हो, ऐसा मन करता है फिल्म देख। बड़े बैनर की खराब फिल्म पर पैसा बर्बाद कर हासिल कुछ नहीं होता।
दो हीरोईन, एक हीरो, एक विलेननुमा हीरो, बेहतरीन सिनेमाटोग्राफी, उससे भी बेहतर युवा गाने, संगीत और साथ ही छोटी सी कहानी को नाम दिया गया है 'सोच लो'। फिल्म का नाम 'देख लो' रख कुछ और जगह रिलीज़ करते तो लोग देख ही लेते।
बिज़नस में लूज़र होने के बावजूद इस हफ्ते की सरप्राईज़ विनर है 'सोच लो'।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)
No comments:
Post a Comment