Thursday, September 9, 2010



फिल्म समीक्षा -- 'दबंग '
(शुक्रवार /10 सितम्बर 2010 /सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )

डायरेक्शन, कहानी, संवाद, स्क्रीनप्ले, कास्टिंग, कलाकार, अदाकारी की बात अगर छोड़ दें तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि फिल्म आपको बेहद पसंद आएगी। इनको छोड़ने के बाद फिल्म में बचेगा अजीब एक्शन, बेवजह गाने, बेतुकी बातें, अनजान दिशा, बेमकसद कोशिश और शुद्ध बेवकूफी। अब बताइए और क्या चाहिए आपको फिल्म से?

फिल्म के एक बेहद मार्मिक सीन की झलक-- पिता ने सलमान से कहा कि तुम आज से मेरे बेटे नहीं, तो भाई ने आंख पोंछी और काला चश्मा लगा लिया। स्टाइल। अपनी मां की मौत के बाद भाई सीधा हीरोईन के घर गया रिश्ता मांगने। स्टाइल। हीरोईन के पिता की मौत के बाद शोक सभा को कैंसिल कर हीरोईन के साथ शादी कर ली किसी और के मंडप में। स्टाइल। भई इतना तो साउथ की फिल्मों में भी नहीं होता।

सलमान बने चुलबुल पांडे कभी रॉबिनहुड पांडे नहीं बनते। अगर आप इस नाम से कहानी का आईडिया लगाए बैठे हों तो गलत। अपना चुलबुल क्या करता है, कब करता है ये उसे खुद नहीं पता। अचानक वो इंस्पैक्टर बन गया, अचानक वो मेट्रिक्स फिल्म के हीरो जैसा हो गया, अचानक वो सब कर लेता है और निर्देशक उम्मीद करता है कि अचानक ही दर्शक फिल्म देख पसंद कर ले। हां, बस वो सोते हुए अपना काला चश्मा नहीं लगाता होगा, ये पक्का है।

कॉमेडी कहीं थी नहीं जो हंसी आती। एक्शन एकदम मशीनी, साउथ और मेट्रिक्स फिल्मों टाईप। किरदार के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। फिल्म किस कस्बे, शहर, कहां बसी दिखी ये शायद निर्देशक ही जब भूल बैठा हो तो मुझे क्या अंदाज़ा लगता। अच्छा हां, हीरोईन मैडम सोनाक्षी। क्या कहने उनके। जीवन में कुछ और कर लिया होता ज़रूरी थोड़े ही है कि हर कोई खानदान में हीरो हीरोईन बने। और भई विलेन बनाया है साईड हीरो सोनू सूद को। इस चक्कर में न वो साईड हीरो लगा और विलेन तो कभी वो लगता ही नहीं बेचारा।

इस मल्टीस्टारर फिल्म में विनोद खन्ना, ओम पुरी और डिंपल भी हैं पांच पांच मिनट के लिए।

ऐसा लगता है कि फिल्म में कैमरा ऑन कर छोड़ दिया गया और सलमान भाई को बोला कि भाई कर लो जो मन में आए रिकॉर्डिंग चालू है। इस रिकॉर्डिंग के हिस्से जोड़ फिल्म बना लेंगे। सारी दुनिया एक तरफ और सलमान भाई की फिल्म एक तरफ। भाई, भाभी, बड़े भईया सभी के मन में जो आया किया। आज़ादी भरपूर दी इनको डायरेक्टर ने। कहा कि आप बस दिख जाओ फिल्म में, फिल्म तो अपने आप ही बन जाती है।

मुंबई की देहाती फिल्म। पता नहीं फिल्मवालों को लगता हो कि इन छोटे शहरों में ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें फिल्म के नाम पर कुछ भी दिखा दो तो सीटी तो बजा ही देंगे। भारत को सिनेमा के स्तर पर दो भागों में बांटती फिल्म। खराब फिल्म के लिए यह बहाना हो सकता है कि यह तो छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थियेटर के लिए बनी हैं। तो भाई सलमान से अब उम्मीद छोड़ ही दो तो बेहतर है।

21 साल के अनुभव और अनगिनत नई हिरोईन्स को अपने साथ लॉन्च कर चुके सलमान से अब भी अगर एक संतुलित फिल्म की उम्मीद न करें तो कब करें? लेकिन शायद असल जीवन का असंतुलन पर्दे पर भी फिल्म के ज़रिए झलक पड़ा। तो प्रचार इस फिल्म को कब तक ऑक्सीज़न दे पाएगा यह तो नहीं जानता, पर आप और हम सलमान के फैंस तो हो सकते हैं लेकिन रिश्तेदार नहीं जो इस फिल्म को देखकर तारीफ करना हमारे लिए ज़रूरी हो।

टुच्चे फिल्मी सितारों से लेकर आमिर खान तक ने फिल्म की पैरवी की है फिल्म देखने के बाद। क्यों की है ये उन्हें ही पता होगा और आप खुद ही अंदाज़ा लगाएं। लेकिन फुस्स पटाखे के अलावा कुछ नहीं है फिल्म। आमिर खुद किसी को टिकट खरीद कर दे रहे हों तो वो फिल्म देख ले।

ईद और गणेश चतुर्थी के मौके पर अपने कीमती पैसे मस्जिद या मंदिर में दान करने से मुमकिन है भगवान से आशीर्वाद मिल जाए पर शायद इस फिल्म पर खर्च करने से सही मनोरंजन मुश्किल ही नसीब हो।

अरे डायरेक्टर कौन है भई इस फिल्म का?

(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)

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