Thursday, October 7, 2010




कुछ मन की

'जय संतोषी माँ'
(शुक्रवार /08 अक्तूबर 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )

आज उस फिल्म को याद करने का मन है, जो उस साल शोले और दीवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी दिखाई दी थी। फिल्म क्या थी एक जयकारा थी, एक आशीर्वाद थी जो अनगिनत दर्शकों के नसीब में आई। बात और याद उस फिल्म के भुलाए जा चुके उन अनजान कलाकारों की, जिन्हें कभी कई लोग भगवान मान हाथ जोड़ लिया करते।

कोशिश इस बार फिल्म अपनी नज़र से नहीं बल्कि आसपास के उन लोगों की नज़र के ज़रिए देखने की, जो वाकई उस दौर में उस फिल्म को देख पाए।

बात माता के उन व्रतों की, जो महिलाओं ने फिल्म देखने के बाद अधिक प्रबलता से रखे। बात भजन रूपी उस गीत की, जिस पर आज भी उतनी ही मस्ती में डांडिया होता है जितना कि उसको सुन भक्ति भाव जाग उठता है। ज़िक्र फिल्म की कहानी बनी माता की उस कथा का भी, जिसका महत्व और औचित्य आज भी मेरे आसपास उतना ही है जितना सिनेमाहाल में हाथ जोड़े 35 साल पहले वाले किसी दर्शक के लिए था।

रूपयों के आंकड़ों में तोलने या तुलना करना उस फिल्म के लिए अटपटा होगा। उसकी कमाई तो मानो एक चढ़ावा थी। मास मीडिया के ज़रिए एक सुंदर धार्मिक कथा थी वो फिल्म।

'जय संतोषी माँ'। सिनेमा के पर्दे की ओर लोग शायद पहली बार भक्ति भाव में सिक्के और फूल फेंकते नज़र आए। संतोषी मां बनी अभिनेत्री अनीता गुहा के मुताबिक फिल्म अपने आप में चमत्कार से कम न थी और बांद्रा के एक सिनेमा हॉल में एक शो में तो लोग चप्पल बाहर उतार कर दाखिल हुए।

उस साल 1975 में साढ़े चार सौ फिल्में रिलीज़ हुईं। तीन फिल्में बेमिसाल हिट रहीं। लेकिन एक तरफ दो फिल्मों में कलाकारों की भीड़ थी तो दूसरी तरफ मां खुद मोर्चा संभाले थीं। शोले और दीवार यदि सब ने देखी तो जय संतोषी मां को भी नज़रअंदाज़ न कर पाए।

सस्ते सेट, अनजान कलाकार, हल्के फुल्के स्पेशल इफैक्ट और बेहद कम बजट। इस सब के बावजूद फिल्म साल की तीसरी सबसे बड़ी हिट हो तो क्या बात। उस दौर में पिछले तीन दशक से धार्मिक सिनेमा जहां एक चुनिंदा वर्ग के लिए ही समझा जाता था, वहीं कम प्रचारित हिंदू देवी पर आधारित फिल्म की घर घर में चर्चा अपने आप में हैरान करने के लिए काफी थी। फिल्म चली, गाने दौड़े। न केवल शहरों में बल्कि छोटे कस्बों तक में।

एक दौर ऐसा भी आया जब फिल्म को रिलीज़ के कुछ समय गुज़र जाने के बाद केवल महिलाओं के लिए मैटिनी शो में शुक्रवार के दिन दिखाया जाता। शुक्रवार का दिन, संतोषी माता का दिन। और दिन में फिल्म। मार्केटिंग उस दौर में भी कम न थी। टार्गेट औडिएंस शायद निम्न मध्यम वर्ग, खासकर महिलाएं।

लोगों के इस फिल्म के प्रति धार्मिक आचार व्यवहार के ज़रिए ही शायद संतोषी माता के पूरे भारत में नई नई जगह मंदिर और आस्था के नए स्थान बनने संवरने लगे। न इसमें कोई हर्ज था और न किसी को आपत्ति। कोई ईश्वर फिल्म के प्रचार की वजह बनें और किसी फिल्म की वजह से किसी देवी और उसकी शक्ति का प्रचार हो, ये दोनों फर्क बातें हैं। और यही अपने आप में शोध का विषय रहा। कई लोगों ने किया भी।

कानन कौशल, रजनीबाला, अनीता गुहा, आशीष कुमार ये सब कलाकार थे फिल्म के। महेंद्र कपूर, उषा मंगेशकर की आवाज़, गीत प्रदीप के। संगीत सी अर्जुन का। ज्वाइंट फैमिली में पति पत्नी के मिल के बिछुड़ने और फिर मिलने की गज़ब सामाजिक कथा। भाईयों का प्यार, देवियों का इंसानों की तरह ईर्ष्या का स्वभाव।

कहानी कुछ ऐसी कि उस में अन्य देवियों के बीच संतोषी माता भी स्थापित होती हैं और अन्य महिलाओं के बीच मुख्यपात्र सत्यवती भी। दोनों के एक होने का अहसास भी हो आता है। संतोषी माता के ज़रिए सत्यवती और सत्यवती के ज़रिए संतोषी माता के मज़बूत होने की कथा। ध्यान दें दोनों महिलाएं। इसके मुकाबले एंग्री यंग मैन की हीरो की इमेज वाली दो फिल्में शोले और दीवार। देश में उस दौर में महिला प्रधानमंत्री। फिल्म में गरीबी को अभिशाप और पैसे की अहमियत को किरदारों के जीवन के ज़रिए समझाने की कोशिश।

बेहद कसी हुई फिल्म। देखने बैठें तो बीच में उठने का मन न करे। 35 साल शोले ने पूरे किए हैं तो जय संतोषी मां ने भी। पर चर्चा उतनी नहीं। सुझाव ये कि नहीं देखी तो इस सीज़न में हो सके तो ये फिल्म देखें। और साथ ही सिनेमा और माता, दोनों के चमत्कार का गुणगान करें।

आज 'जय संतोषी माँ' को देखने के लिए किसी सिनेमा हॉल में नहीं, इस लिंक पर जा सकते हैं--


(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत है और वे मीडिया मंच के लिए ख़ास तौर से कॉलम लिखते हैं . )

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