Saturday, October 23, 2010



सौरभ की समीक्षा -- रक्तचरित्र

(शनिवार /23 अक्तूबर 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )

टाईटल और खून की परवाह किए बगैर फिल्म देखने जाएं। अच्छी लगेगी।

भूल जाना होगा इस बात को कि विवेक ओबेरॉय ने इससे पहले किसी फिल्म में एक्टिंग की थी। भूलना होगा राम गोपाल वर्मा की उन सारी फ्लॉप फिल्मों को, जिनकी वजह से वो बेवजह बदनाम हैं। भूलना 'सरकार' और 'सरकार राज' को भी होगा। विवेक के लिए पुनर्जन्म जैसी फिल्म। राम गोपाल वर्मा के लिए नई 'शोले' बनाने के पाप को धोने का मौका देती फिल्म।

'शिवा', 'सत्या', 'कंपनी', 'सरकार', 'सरकार राज' जैसी फिल्मों के निर्देशक की एक और शानदार फिल्म। इतिहास के पन्नों में दर्ज होने के लायक। संगीत, गाने, गानों के बोल, बैकग्राउंड स्कोर इतना शक्तिशाली और ज़बरदस्त, जो फिल्म की कहानी में ज़रूरी तनाव को पूरा कर, उसे एक नए स्तर पर ले जाता है। वाकई तारीफ लायक। बिना किसी बड़े सितारे, केवल एक जाने पहचाने चेहरे विवेक और मज़बूत अनजान साईड कलाकारों के ज़रिए एक कंप्लीट मनमाफिक फिल्म की शक्ल।

किसने राम गोपाल से पहले ऐसा किया होगा कि फिल्म को दो हिस्सों में बनाया हो। फिल्म हिट हो जाने के बाद तो कई लोगों ने दूसरा और तीसरा पार्ट बनाया लेकिन अपनी कहानी की ज़रूरत को समझते हुए फिल्म को दो हिस्से बनाने की हिम्मत रामू में ही है।

बायोग्राफिकल एक्शन थ्रिलर है, फिल्म की किस्म। केवल बायोग्राफी बहुत बनी। केवल एक्शन फिल्में बहुत बनीं। और थ्रिलर बनाने की भी बहुत सफल असफल कोशिशें भारतीय सिनेमा में हुई हैं। लेकिन अपने आप में नई सी किस्म।

'सरकार' और 'सरकार राज' में अगर एक 'क्लास' था तो रक्तचरित्र अपनी 'क्लास' और 'क्लास स्ट्रगल' में घुले मिले पॉलिटिकल क्लास स्ट्रगल के लिए याद रखी जाएगी। अगर हम में से बहुत लोगों को इस बात का मलाल रहेगा कि रामू सरकार का तीसरा पार्ट नहीं बनाएंगे तो उस मलाल को खत्म करती फिल्म। कुछ फ्रेम में 'सरकार' जैसी और अनेकों फ्रेम में 'सरकार' से खुद को बेहद अलग करती 'रक्तचरित्र'। आंध्र की सैटिंग। बेहतरीन कैमरा। सिनेमाटोग्राफी फिल्म के मुताबिक। सब्जैक्ट आज भी प्रासंगिक। किरदार बेहद जीवंत और दर्शक सीट से बंधा हुआ।

खचाखच भरे हॉल में जब इंटरवल तक कोई चूं भी न कर पाया हो तो ऐसे में वो फिल्म, उसका निर्देशक ही है जिसके लिए ताली बजाने का मन करता है। कोई भी फिल्म सीन दर सीन लय में आगे बढती सी लगे। हर सीन पर मेहनत झलकती हो और कई बेहतरीन सीन याद रह जाएं तो क्या कहिए। जय श्री राम (गोपाल वर्मा)।

शायद साल की सबसे पॉवरफुल फिल्म। सिनेमा में इस्तेमाल होने वाली हर विधा के साथ बेहतरीन प्रयोग और उपयोग। चाहे वो साउंड हो, सीन के मुताबिक कैमरा हो या संगीत।

कहानी दो भागों में। परिताला रवि के जीवन में ताकतवर होने और फिर उसके अंत की। इस भाग में केवल ताकत। पूरी ताकत से बहता रक्त। परिताला रवि आंध्र के रायलसीमा क्षेत्र के एक नेता और बाद में टीडीपी सरकार में मंत्री। 2005 में हत्या। परिताला रवि यानि प्रताप रवि बने विवेक, एक मज़बूत विलेन बुक्का रेड्डी के रूप में अभिमन्यु सिंह। विवेक की पत्नी नंदिनी बनीं राधिका आप्टे, मां बनीं ज़रीना वहाब और सबसे अंत में एनटीआर की भूमिका में पहली बार बिना मूंछों वाले शत्रुघ्न सिन्हा।

'राजनीति' प्रकाश झा बना चुके, 'रक्तनीति' राम गोपाल ने बना ली। इस निर्देशक ने रक्तनीति की गलियों से गुज़रती राजनीति की असल तस्वीर पेश करने की कोशिश की है। कोई लाग लपेट नहीं सीधे और कम संवाद। एक्शन पूरा। तनाव पूरा और फिल्म मज़बूत।


(सौरभ कुमार गुप्ता नई दिल्ली में एक न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडिया मंच के लिए ख़ास तौर से फ़िल्मों की समीक्षा करते हैं . )

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