Saturday, October 30, 2010

 क्या नीतीश का जादू चल पाएगा?
(शनिवार /३० अक्टूबर २०१०/ रामाशंकर त्रिपाठी /पटना )

बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान में जब लोकसभा के विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज पटना आयी थी तो उन्होंने संवाददाताओं से बात करते हुए स्पष्ट कहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य के जादूगर है। उन्होंने अपने शासनकाल में सूबे की तस्वीर बदल दी है। चारों ओर विकास का गुणगान हो रहा है, लेकिन क्या नीतीश कुमार का जादू इस विधानसभा चुनाव में चल पाएगा? क्या पुन: सूबे की जनता नीतीश के हाथों मे सत्ता सौंपेगी? क्या राजग गठबंधन को पूर्ण बहुमत आएगी या फिर कांग्रेस के हाथों सत्ता की चाभी होगी? राजद-लोजपा गठबंधन क्या रंग लाएगी यह सभी का पटाक्षेप होने में कुछ दिन और बच गये हैं। 24 नवम्बर को इस बात का फैसला हो जाएगा कि बिहार की जनता किसे सत्ता सौपंती है।

विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया फिलहाल चल रही है। चार चरणों का चुनाव भी अब तक हो चुका है। नतीजा चाहे जो कुछ भी आये लेकिन इतना तो जरूर है कि इस बार का नतीजा पूर्ण रूप से किसी राजनीतिक दल के पक्ष में आ जाए, इसमें संदेह है। भले हीं चुनाव का पैटर्न बदला, लोग बदले, समाज बदला, जनता जागरूक हुई, अपराधियों पर लगाम लगा। वैसे बिहार की राजनीति में फिलहाल विकास एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। सारे राजनीतिक दल विकास की ही भाषा बोल रहे हैं। सत्ता पक्ष जहां
दावे के साथ कह रहे हैं कि उन्होंने विकास किया है। पिछले पांच सालों में किए गये विकास के नाम पर वह जनता से मजदूरी मांगने आये हैं वहीं राजद ने विकास के दावे को खोखला बताते हुए विकास को विनाश की सज्ञा तक दे डाली है। जबकि कांग्रेस का दावा है कि उन्होंने विगत छह सालों में बिहार के विकास के लिए जितनी राशि राज्य को दी है, उतनी राशि किसी केन्द्र की
सरकार ने अब तक बिहार को नहीं दी है। चाहे बाते कुछ भी हो लेकिन सभी राजनीतिक दलों का मुद्दा एक हीं है, विकास। हालांकि इसका मतलब यह नहीं हुआ कि जाति और धर्म पर मिलने वाले वोट या राजनीतिज्ञों के द्वारा की जानेवाली राजनीति समाप्त हो गई है। यदि समाप्त हो गया रहता तो विगत दिनों भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी प्रकरण में नीतीश कुमार का रवैया शायद वह नहीं रहता।

लेकिन यह भी सच है कि पिछले पांच सालों मे बिहार की तकदीर और तस्वीर बदल गई है। सड़क, स्वास्थ्य और विधि व्यवस्था में जिस तरह का सुधार हुआ वह काबिले तारीफ रहा। इसे सभी लोग मानते भी हैं। जबकि लालू के कार्यकाल मे ऐसी स्थिति थी कि सात बजे शाम के बाद शहर में सन्नाटा पसर जाता था। हर घर के बुजुर्ग अपने परिवार के सदस्यों को जल्दी लौट आने के लिए भगवान से प्रार्थना किया करते थे। लेकिन पांच सालों मे बहुत कुछ बदला है, अब देर रात तक लोग अपने परिवार के साथ पार्क में भी घुमते नजर आ रहे हैं। पांच सालों मे लगभग पच्चास हजार क्रिमिनलों को दोषी करार दिया गया है। नीतीश की छवि भी साफ सुथरी है, न तो पार्टी में परिवारवाद को फैलने दिया और नहीं भ्रष्टाचार का दाग सीधे तौर पर लगा है। भ्रष्टाचार पर भी नकेल कसने की पुरजोर कोशिश की गई। भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जब्त करने के लिए एक विशेष कानून बनी। यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार रूकने के वजाय और बढता हीं चला गया। नीतीश ने अपने शासनकाल में पंचायत चुनावों मे महिलाओं को 50 फीसदी का आरक्षण देकर जो एक नया इतिहास रचा उसे हर राज्यों के साथ-साथ केन्द्र भी सराहा। लड़कियों की साइकिल योजना रंग लाई। लेकिन नीतीश कुमार ने अपने शासनकाल में पार्टी और पूरी सरकार पर दबदबा बनाए रखा। वक्त वे वक्त पार्टी और सरकार को अपनी मनमर्जी से चलाने का आरोप उनपर लगता रहा। जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके अपने कद्दावर सहयोगी ललन सिंह और प्रभुनाथ सिंह जैसे नेता विछुड़ गये। बिहार में विकास की धारा चली तो पैसे का आनाजाना भी शुरू भी हो गया। गांव मे मुखिया और सरपंच की चांदी होने लगी। साइकिल पर चलने वाले मुखिया अब बोलेरो पर चलने लगे। ग्रामीण स्तर में विकास की धारा कुछ लोगों के जेबों तक हीं सिमट कर रह गई। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए जिला स्तर पर भी विजिलेंस को लगाया गया लेकिन भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया जा सका। ब्लॉक से लेकर जिला हेडक्वार्टर तक अधिकारियों की तुती बोलने लगी।

हालांकि फिर भी नीतीश कुमार आश्वस्त है कि सरकार उनकी हीं बनेगी। इसका मुख्य कारण यह है कि कोईरी-कुर्मी और अगड़ी जाति के समर्थन से सरकार बनाने वाले नीतीश कुमार अब अति पिछड़ी जाति (33 फीसदी), महादलित (7 फीसदी) और मुसलमानो मे अपनी पैठ बना चुके हैं। अगड़ी जाति के वोट खिसकने के बाद भी यह दिख रहा है कि लालू-पासवान के समीकरण के मुकाबले उनका वोट ज्यादा है। लालू प्रसाद ने खुद को मुख्यमंत्री घोषित करके उनका काम आसान कर दिया है। दूसरी ओर कांग्रेस भी एक विकल्प के रूप में फिलहाल नहीं उभर पाई है, हां इतना जरूर है कि 20 साल बाद कांग्रेस की स्थिति बेहतर अवश्य हुई है। एनडीए पिछले लोकसभा चुनाव में 38 फीसदी वोट लेकर 175 विधानसभा सीटों पर आगे थी वहीं राजद गठबंधन 26 फीसदी वोट लेकर 38 सीटों पर आगे था और कांग्रेस 10 फीसदी वोट लेकर 10 सीटों पर आगे थी। कांग्रेस-राजद के बीच
समझौता होने की स्थिति में एनडीए को कड़ी टक्कर दी जा सकती थी।

वहीं हर साल प्राकृतिक आपदा झेलने वाले कोसी क्षेत्र के 3 मुख्य शहर सहरसा, मधेपुरा और सुपौल जिले के लोगों ने 2005 के चुनाव में 14 सीटों मे से 13 सींटे राजग की झोली में डालकर उसके प्रति इतना विश्वास जताया था जैसे राजग की सरकार उनके क्षेत्रों का कायापलट कर देने में कामयाव हो जाएंगे। अब उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए अन्य राज्यों में जाना नहीं पड़ेगा। सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था दुरूस्त होगी। हद तक दुरूस्त हुआ भी लेकिन उनलोगों के बीच जिनके पास दो वक्त की रोटी की समस्या कई वर्षों से चली आ रही है वह आज भी बरकरार है। देखते हीं देखते पांच वर्ष बीत गये। एक बार फिर विधानसभा का चुनाव आ गया। इस बीच वहां के लोगों ने एक ऐसा कोसी प्रलय देखा जिसमें बहुत कुछ बर्बाद हो गया। कई परिवारों का घर उजड़ गया, तो कई के सदस्य कोसी के उफान में समा गये। इस त्रासदी के नाम पर बिहार सरकार के खजाने में अरबों रूपये आये। सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ने वायदा भी किया था कि वह एक नया कोसी बना कर दिखा देंगे, धीरे-धीरे समय बीतता चला गया, लेकिन एक नया कोसी तो दूर पुराना कोसी भी सुदृढ रूप से नहीं बन पाया। जिससे वहां के लोग किसी न किसी रूप
में नीतीश से नाराज तो जरूर हैं। नाराजगी का एक सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि इस बार के विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दलों ने इसे मुद्द भी नहीं बनाया। उनके दर्द को गंभीरता के साथ नहीं लिया। सभी ने चुप्पी साध रखी है। इसका खामियाजा शायद नीतीश को भुगतना पड़ सकता है।

हालांकि इतना सच है कि वहां की जनता जहां पिछले चुनाव में जाति एवं जातीय समीकरण की बातें किया करते थे, वहीं आज अधिकतर लोग विकास की बातें कर रहे हैं। विकास करने वालों को वोट देने की बात कहने वाले हर जाति एवं साम्प्रदाय के लोग हैं, लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि जाति और धर्म की भूमिका पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा यदि किसी पर सभी राजनीतिक पार्टियो की नजर है तो वह है मुस्लिम मतदाता। मात्र 17 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए सभी दल बेताब हैं। नीतीश कुमार ने तो भाजपा के स्टार प्रचारक नरेन्द्र मोदी तक को बिहार आने से मना कर दिया। नीतीश ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिए कई हथकंडे हाल के दिनों मे अपनाये हैं। शायद नीतीश जी इस बात को समझ रहे हैं कि 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहने वाले लालू प्रसाद मात्र माई समीकरण के बदौलत हीं टिके थे। मुस्लिम बिदके तो लोकसभा में चार सीटों पर सिमट गये।

इसी तरह कांग्रेस ने भी मुस्लिमों को रिझाने के लिए प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी मुस्लिम को सौंप दी तो रामविलास पासवान ने भी मुस्लिम उपमुख्यमंत्री बनाने का पासा फेंक दिया है। इस पूरे घटनाक्रम के बाद नतीजा किसके पक्ष मे आती है यह कहना मुश्किल है। इस चुनाव में अयोध्या मामले भी कुछ गुल जरूर खिलाएगा। भले हीं राजनीतिज्ञों के द्वारा यह कहा जाय कि अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आया फैसला इस चुनाव में कोई खलल नहीं डालेगी, यह कहना गलत होगा। यह चुनाव मुस्लिमों को राजनीतिज्ञों के द्वारा दी गई विभिन्न टिप्पणियों को समझने का एक बखुबी मौका दिया है। हालांकि इस बात का स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं चुनाव के दिन मुस्लिम अपनी उदासीनता समाप्त कर उत्साह के साथ चुनाव मे भाग लेंगे। पिछले चार चरणों में उनलोंगो ने बखुबी बढ चढकर कर इस चुनावी महासंग्राम मे हिस्सा लिया भी। लेकिन यह वर्ग अपनी उदासीनता को दूर कर किस पार्टी को फायदा पहुंचाएगा या किसका सुपड़ा साफ किया, यह 24 नवम्बर से पहले कहना जल्दवाजी होगी।

बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक राज्य के कुल जनसंख्या का मुस्लिम हिस्सा 16.53 फीसदी है। कहा जा सकता है कि बिहार की 243 विधानसभा सीटो मे से 60 पर मुस्लिम वोट चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अररिया (41,14%), पूर्णिया (36, 76%), कटिहार (42,53%) और किशनगंज (67,58%) जिलों मे 24 सीटों पर निर्णायक है। राज्य की 50 अन्य सीटों पर चुनाव परिणाम को थोड़ा पभावित कर ही सकते हैं। यही नही मुसलमानो का जो ताजा रूझान मिल रहा है उसके मुताबिक हाईकोर्ट के फैसले से पहले मुसलमानों का रूझान सबसे पहले कांग्रेस की ओर था, लेकिन फैसले के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा उक्त फैसले का स्वागत करने की बात को लेकर मुस्लिमों मे थोड़ी नाराजगी जरूर आयी है। लेकिन पार्टी ने चुनाव मैदान मे सबसे ज्यादा 49 मुस्लिम वोटरो को उतार कर यह एहसास दिलाने में लगी हैं कि “मुस्लिमों का सबसे बड़ा हितैषी कांग्रेस के आलावा और कोई नहीं हो सकता” । लेकिन अभी यह कहना जल्दवाजी होगा कि कांग्रेस ने अच्छी-खासी संख्या मे मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान मे उतारकर अल्पसंख्यक खिंचाव को काफी हद तक कम कर दिया है।

नीतीश कुमार ने जिस विकास की शुरूआत की है, उसका क्या होगा? क्या जातीय समीकरण के सामने नीतीश के विकास की हवा निकल जाएगी? नीतीश का जादू चल पाएगा? यह सब इस बार के चुनाव में साफ हो जाएगा। साथ हीं इस बार के चुनाव
में यह भी साफ हो जाएगा कि बिहार जाति से उपर उठ पाया है या अभी भी जाति के भंवरजाल में फंसा हुआ है।

(बिहार विधानसभा चुनाव की संभावनाओं पर रामाशंकर त्रिपाठी की रिपोर्ट )

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