Monday, October 11, 2010

आज जेपी होते !

(मंगलवार /१२ अक्टूबर २०१०/हरिवंश / रांची )

आज जेपी होते, तो मौजूदा हालात पर क्या करते-कहते? यह कयास ही लगाया जा सकता है.लोहिया (कल जिनकी पुण्यतिथि है) ने दधीचि बन आहुति दी, तो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं.पहली बार नौ राज्यों में. बिहार में भी. इधर सरकार बन रही थी. उधर लोहिया जी दक्षिणभारत में छुट्टी मनाने गये. उनकी रुचि नहीं थी कि सरकार गठन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें.मनपसंद लोगों को गद्दी दिलाएं.

तब बिहार सरकार के बड़े गैर कांग्रेसी नेताओं ने भूपेंद्र नारायण मंडल से बार-बार आग्रहकिया, आप मंत्री बन जायें. पर वह राजी नहीं हुए. वह अत्यंत त्यागी और तपस्वीसमाजवादी माने गये. उनका तर्क था, मैं राज्यसभा सदस्य हूं. मैं कैसे राज्य में भी मंत्रीबनूं? यह लोहिया जी की नीतियों के खिलाफ है. अंतत लोगों ने बीपी मंडल को तैयार किया.और बिहार में मंत्री बना दिया.

बीपी मंडल जी लोकसभा के सांसद थे. बीपी मंडल, जब दिल्ली गये, तो लोहिया जी ने संदेशभिजवाया, इस्तीफा दे दो. जहां, जिस काम (लोकसभा) के लिए जीते हो, वह करो. वह छहमहीने मंत्री रहे. वह चाहते थे कि उन्हें एमएलसी बना दिया जाये. लोहिया जी सहमत नहींहुए. उन्हें जाना पड़ा. सरकार भी गिरी. 33 विधायकों ने मिल कर शोषित दल बना लिया.

इसी तरह केरल में थानु पिल्लई की अपनी सरकार की लोहिया जी ने बलि दी. सिद्धांत केआधार पर. वहां गोलीकांड हुआ था. लोहिया मानते थे कि दल के सिद्धांतों के अनुप ही दलके सदस्यों को चलना चाहिए. ऐसे अनेक प्रसंग हैं. ये तथ्य जब आज के लोहियावादियों कोआप याद दिलायेंगे, तो वे नहीं मानेंगे. उनके कर्म, वचन व जीवन में अब बड़ा फासला है.

अन्य दलों की तरह. इसी तरह, आज जेपी आंदोलन से निकले नेता देश व बिहार काभविष्य गढ़ रहे हैं. पर, क्या उन्हें आज जेपी या जेपी की बुनियादी बातें (जिन्हें लेकरआंदोलन हुआ, जिसकी लहर पर आसीन होकर ये सत्ताढ़ हुए) स्मरण हैं?मसलन, जिस जेपीने भ्रष्टाचार से बेचैन और उद्विग्न होकर 74 के आंदोलन की रहनुमाई की, उस भ्रष्टाचारमुद्दे पर उनके चेले क्या सोचते हैं? क्या करते हैं? यह उनके लिए मुद्दा है भी या नहीं? इसीतरह उन्होंने जाति तोड़ो अभियान चलाया. जनेऊ तोड़ो का आह्वान किया. क्या आज उनकेशिष्य उसी रास्ते पर हैं? या जाति की राजनीति को और मजबूत रुप दे रहे हैं? लोहिया केलिए वंशवाद अभिशाप था. देश के लिए.

राजनीति के लिए. इसलिए वे नेह परिवार के खिलाफ अधिक तल्ख रहे, आजीवन. क्योंकिउस व नेह परिवार ही राजनीति में वंशवाद का प्रतीक था. जेपी भी शालीन तरीके सेराजनीति में इस बढ़ते परिवारवाद-वंशवाद के खिलाफ थे. आज दोनों होते, तो खासतौर सेबिहार के हालात देख कर क्या कहते? या करते? दोनों के कर्म, उनके अपने सिद्धांतों केअनुप रहे. इसलिए इन मुद्दों पर इनकी राय जाहिर है. वे फ़िर बगावत और बदलाव के रास्तेचलते. जिन्हें गढ़ा, बनाया उनके फ़िसलन देख कर जेपी-लोहिया अपने ही गढ़े, बनाये औरविकसित किये गये लोगों के खिलाफ़ खड़े होते. यह दोनों के जीवन और सिद्धांतों का निष्कर्षहै.

आज जेपी..आज बिहार में किस हद तक यह बेशर्मी पहुंच गयी है? राजनीति को नेताओं नेनिजी जागीर समझ ली है. राजनीति में यह नये किस्म का जातिवाद है. पुराने राजाओं,सामंतों और जमींदारों की तरह राजनीति में वंश के आधार पर उभर रहे नये युवराजों,राजाओं, सामंतों व जमींदारों का नया वर्ग. जैसे राजाओं, सामंतों व जागीरदारों में अलग-अलगजातियों, समूहों के लोग थे. पर उनका वर्गहित एक था. उनके स्वार्थ एक थे. इसलिए वेएकजुट रहे. यही हाल बिहार की राजनीति में दिखायी दे रहा है.


पार्टियां या तो परिवारों की लिस्टेड कंपनियां हैं, या बड़े नेताओं के डिक्टेट मानने कोमजबूर. मांझी के एक देहाती किसान कहते हैं. हालत यह है कि बाप कहीं, मेहरारू कहीं, बेटाकहीं. सब सांसद या विधायक बनना चाहते हैं. अब बिहार के इन चुनावों में मतदाताओं कोभी अपना एक वर्ग बनाना चाहिए. जाति, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय से ऊपर उठ कर. जब लोकसभामें तनखाह व सुविधा बढ़ाने के लिए सब एकजुट हो सकते हैं, तो जनता क्यों नहीं एकजुटहो? अपने हालात बेहतर करने के लिए.

हर बिहारी इन चुनावों में दल और नेताओं को तीन-चार मापदंडों पर परखे. पहला, पर्सनलइंटीग्रिटी और परिवारवाद. कोई नेता अपनी पार्टी को निजी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरहचलाता है या वह दलों के कार्यकर्ताओं को भी महत्व देता है? वह अपनी पूरी राजनीति अपनेबेटे, भाई-बंधु, साला-समधी, पत्नी या रिश्तेदारों के लिए तो नहीं कर रहा? भविष्य मेंलोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा बननेवाला है. हर पार्टी के जो बड़े नेता हैं, वे ओर्थक प सेभी अत्यंत सबल व ताकतवर हो गये हैं. चुनाव पैसों का खेल हो गया है.

साफ है कि जो राजनेता अपने-अपने दलों के सूरमा हैं, वोट बटो हैं, आलाकमान हैं, जोसंपत्तिवान हो गये हैं, अगर वे अपने बेटे, बेटियों या पत्नी या स्वजन को टिकट दे-दिला करउनका भविष्य सुरक्षित करते हैं, तो राजनीति में कॉमनमैन के लिए दरवाजे बंद होंगे. सत्ताउनके हाथ, धन उनके पास. कोई मर्यादा, संकोच या मूल्य नहीं. अंगरेजी में यह डेडलीकंबीनेशन (मारक गुट) कहलाता है. यह राजनीति में उभरता नया वर्ग है. जेपी ने बहुत पहलेचुनाव सुधार का अभियान चलाया, क्योंकि वह मानते थे कि चुनाव लगातार महंगे औरसामान्य लोगों की पहुंच से बाहर जा रहे हैं. यही बात अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है.

एक सामान्य कार्यकर्ता, चाहे वह कितना ही ईमानदार, त्यागी या तपस्वी हो, अब शायद हीराजनीति में शीर्ष तक जाये. धन-बल के अभाव में. भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की बात जेपी 60के दशक में करते थे. उस व संथानम कमेटी बनी, केंद्र सरकार की पहल पर. चुनाव औरभ्रष्टाचार वगैरह पर अंकुश लगाने के लिए. पर कुछ नहीं हुआ. अंतत राजनीतिज्ञों की कथनी,करनी से निराश जेपी ने जीवन के अंत में बड़ा बिगुल फूंका. भ्रष्टाचार के खिलाफ बदलावका आवाहन. संपूर्ण क्रांति की बात.

कहां हैं ये चीजें आज, उनके चेलों के जीवन या राजनीति में? या उन दलों में जो उनकानाम भजते हैं? पटना में सात अूबर को एक कार्यक्रम हुआ. विजयकृष्ण शामिल हुए राजदमें. वहां पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह भी थे. उनका बयान आया. साइकिल वितरण योजना कोबढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है. पर यह योजना गांवों में इज्जत पर चोट पहुंचा रहीहै. इस सरकार का नाश तय है.

राजद और जदयू के बीच सत्ता संघर्ष है. इसलिए दोनों के आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह हैं.चुनावी जंग में सब जायज है. साइकिल योजना सही है या गलत है, यह बहस का विषय होसकता है. पर, इस योजना से गांवों की इज्जत पर चोट पहुंच रही है, (अगर यह बयान सहीहै), तो यह विस्मयकारी बयान है. इसका संकेत लड़कियों को साइकिल देने से है. लड़कियों केस्कूल जाने से है. घरों से निकलने से है.

राजनीति या समाज में औरतों की सार्वजनिक साङोदारी पर लोहिया या जेपी के क्या विचारथे? यह याद करने की जरत नहीं. लोहिया तो पूरी औरत जात को ही एक अत्यंत उपेक्षित,पीड़ित, शोषित व पिछड़ा वर्ग मानते थे. चाहे वह ऊंची जाति की हो या पिछड़ी जातिकी. कुछ दिनों पहले, नालंदा के एक सजग मतदाता मिले. उन्होंने पहले अपना नामबताया, फलां यादव. बोले-नीतीश राज्य में सड़कें अच्छी बनी हैं. स्कूल-कॉलेज बन गये.विकास के काम हो रहे हैं.

चौकस सुरक्षा है. वह सरकार के कामों के प्रशंसक हैं, यह खासतौर पर उल्लेख करते हैं. तबअपनी असली बात बताते हैं. वह साइकिल योजना से सख्त नाराज हैं. उनका कहना है किगांवों की लड़कियां बहक (उनके ही लब्ज) गयी हैं. क्राइम की घटनाएं इसी कारण बढ़ी हैं.इसलिए वह सरकार के कामों से खुश रहने के बाद भी, सरकार के पक्ष में वोट नहीं देंगे.

प्रभुनाथ जी के बयान को पढ़ कर कुछ दिनों पहले नालंदा के उ मतदाता की यह बात भीयाद आयी. ये बयान क्या बताते हैं? आज भी बिहार का मानस कहां खड़ा है? यह एटीट्यूड,अप्रोच या ओपिनियन किसी एक या दो में हो, ऐसा नहीं है. यह संकेत है कि कैसी थिंकिंगआज भी बिहारी समाज में है ? यह हर जाति, धर्म व क्षेत्र में मिलेगी. क्या इस रास्ते बिहारएक आधुनिक राज्य बनेगा? बहस इस पर हो. चुनाव में घर-घर तक यह बहस पहुंचे.

याद आया, 1972 में एनसीसी कैडेट था. ऑल इंडिया एनसीसी कैडेट प्रशिक्षण के लिए चयनहुआ. पहली बार हमने बेंगलुरु देखा. बनारस के बाद पहला कोई बड़ा महानगर या शहर. उसशहर की 1972 की वह बात भूलती नहीं. तब वहां लड़कियां स्कूटर चलाती थीं. हमलोगशहर घूमने गये. हम उत्तर भारत या खासतौर से हिंदी राज्यों के छात्रों के लिए यह अजूबाथा. कल्चरल शॉक. हम एक ठेठ देहाती और सामंती परिवेश से गये थे.

भले ही हमारे यहां शहर रहे हों, पर कमोबेश औरतों के बारे में या लड़कियों के बारे में हमारामानस यही था. हम उन्हें परदे में देखने के आदी थे. चहारदीवारी में कैद. बेजुबान. बेंगलुरुदेखने के पहले छपरा, बलिया और आरा देख चुका था. पटना, बनारस या इलाहाबाद भी.कहीं एक लड़की स्कूटर की सवारी करते नहीं पाया था.

आज क्यों बेंगलुरु सबसे विकसित शहरों में से एक है? क्योंकि उस समाज ने बहुत पहलेऔरतों को साङोदारी देने की पहल की. परदा तोड़ा. शिक्षा से लेकर जीवन के हर क्षेत्र मेंबराबर का दरजा. आज बेंगलुरु कहां है? और कहां खड़ा है पटना या पुराना पाटलिपुत्र?पाटलिपुत्र इतिहास का गौरव है. पर वह अतीत बन चुका है. अतीत की समृद्धि के बावजूददेश के ही नक्शे में कहां खड़ा है बिहार या पटना? आज बेंगलुरु, अमेरिका के सिलिकन वैलीके बाद पूरब का सिलिकन वैली कहा जाता है.

सिलिकन वैली क्या है? कैलिफोर्निया के उस इलाके में जाकर देखने से अहसास हुआ. कैसेएक जगह ने पूरी दुनिया का भविष्य बदल दिया? टेक्नोलॉजी में नित नये इनोवेशन याखोज. वे खोज जो दुनिया का भविष्य तय कर रही हैं. सूचना क्रांति का असर आज गांव-गांवतक है. टेक्नोलॉजी ही दुनिया का भविष्य तय कर रही है. ठेठ और गंवार भाषा में कहें, तोसिलिकन वैली उस टेक्नोलॉजी (जो दुनिया का भविष्य तय कर रही है) की राजधानी है.

दुनिया में मान लिया गया है कि पूर्वी महाद्वीप की सिलिकन वैली बेंगलुरु है. सिर्फ ऐशयाकी ही नहीं. बेंगलुरु को दुनिया में यह स्टेटस मिला. उसके कई कारण हैं. पर एक महत्वपूर्णऔर निर्णायक कारण है, औरतों का आगे आना. आधी आबादी को खुली हवा में सांस लेने काअवसर न देकर आप कैसे विकास कर सकते हैं? आगे बढ़ सकते हैं? आधा शरीर सुन्न रहे,तो आप स्वस्थ कैसे रह सकते हैं? बेंगलुरु का महत्व जानना हो, तो कुछेक वर्षो पहलेप्रकाशित थॉमस फ्रीडमैन की विश्व प्रसिद्ध व चर्चित पुस्तक पढ़ें, द वर्ल्ड इज फ्लैट.

इसके अलावा सामाजिक प्रगति सूचकांक में या मानव विकास सूचकांक में कहां खड़े हैं बिहारऔर कर्नाटक. यह 21वीं सदी की दुनिया नयी है. अब पुराने मानक कारगर नहीं. क्लासिकलअर्थशास्त्र मानता था कि उत्पादन के पांच महत्वपूर्ण कारक हैं- लैंड, लेबर, कैपिटल वगैरह.इनसे ही संपत्ति का सृजन (कैपिटल फ़ार्मेशन) होता है. अब ये मानक टूट गये हैं. यह नॉलेजएरा है. इस एरा का महत्व समझिए, एक उदाहरण से. पहले तयशुदा था कि राजा का लड़काराजा, जमींदार का लड़का जमींदार, इसी तरह उद्योगपति का बेटा उद्योगपति.

भले ही वह अयोग्य व नाकाबिल हो, पर इस नॉलेज एरा ने इस अघोषित पुष्ट परंपरा कोध्वस्त किया है. एक पीढ़ी में ही नारायण मूर्ति या अजीम प्रेमजी दुनिया के बड़ेउद्योगपतियों में शुमार होते हैं. उनके बाप-दादे या पुरखे उद्योगपति नहीं थे. मामूली परिवार.पैसे कम होने के कारण नारायण मूर्ति आइआइटी में पढ़ाई नहीं कर सके. पर आज दुनिया मेंइन लोगों की क्या हैसियत और रुतबा है? कैसे है? एक प्रमुख वजह है.

अपनी नॉलेज संपदा का इस्तेमाल इन्होंने इस नॉलेज एरा में किया. अत्यंत ईमानदारी औरमूल्यों के साथ जीनेवाले ये लोग हैं. इस तरह नयी टेक्नोलॉजी ने अनेक मामूली लोगों कोकरोड़पति, अरबपति बना दिया है. ईमानदार तरीके से. घूस और भ्रष्टाचार के बल उनकीहैसियत नहीं बनी. परिवर्तन की यह हवा बिहार या हिंदी इलाकों तक क्यों नहीं पहुंची? क्योंभविष्य तय करनेवाली राजनीति या चुनाव में ऐसे प्रसंग या सवाल नहीं उठ रहे? कम-से-कमजनता तो ये सवाल उठाये. हर दल से पूछे, हर विधायक से जो वोट मांगने आये, यह सवालकरे कि हमारा राज्य देश का सबसे पीछे का राज्य क्यों बन गया? क्यों हमारे यहां नयीटेक्नोलॉजी का विकास नहीं हुआ? हम दक्षिण के राज्यों से क्यों पीछे हुए? क्यों हमारे यहांके छात्र अन्य राज्यों में पढ़ने के लिए और अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैं? फ़िर पूछेकि इस राज्य को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए क्या ब्लूप्रिंट है आपके पास? इसके बाद वोटबहुत सोच-समझ कर दें.

इस चुनाव में बहस का विषय हो कि हमारे नेताओं का मानस बदलेगा या नहीं? अगर,औरतों समेत हर निर्णायक सवाल पर पुराने तौर-तरीके से हम सोचेंगे, तो कहां पहुंचेंगे?जनता यह पूछे, नहीं पूछेगी, तो फिर वह ठगी जायेगी. छली जायेगी. देहात में लोग कहते हैं,अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत. एक बार वोट लेकर जब नेता व दल फुर्रहो जायेंगे, तब मतदाताओं के हाथ क्या होगा?

(लेखक हिंदी दैनिक 'प्रभात खबर 'के प्रधान सम्पादक है . )

साभार -प्रभात खबर

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