Friday, November 26, 2010

विशेष लेख
जो शहीद हुए.... (०१)
भुवेन्द्र त्यागी
उन दस आतंकवादियों के पास थे आधुनिक हथियार और सख्त ट्रेनिंग। साथ ही था जेहाद के नाम पर कत्लेआम करने का जज्बा। उनके सामने थे साधारण हथियारों वाले पुलिसकर्मी। यह कोई बराबरी की जंग नहीं थी। लेकिन गैर बराबरी की इस जंग में वर्दी की आन ने जान की बाजी लगा दी। आतंकवादी 5000 मासूम लोगों की जान लेने के अपने मंसूबे में कामयाब न हो सकें, इसके लिए देश के वीर सपूतों ने जान हथेली पर रखकर उनका मुकाबला किया।
इस मुकाबले में दो आईपीएस अधिकारी, दो एनएसजी कमांडो, 11 पुलिसकर्मी, दो रेलवे पुलिसकर्मी और एक होमगार्ड शहीद हुए। इन 18 शूरवीरों ने अपना बलिदान देकर अनगिनत मासूम नागरिकों की जान बचाई, अन्यथा इस हमले में मारे गए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा होती। देश इन सपूतों की कुर्बानी को हमेशा याद रखेगा।

हेमंत करकरे
12 दिसम्बर, 1954 को नागपुर में जन्मे हेमंत करकरे एटीएस के प्रमुख थे। उन्हें कामा अस्पताल के पास इस्माइल खान की तीन गोलियां लगीं। 26 जनवरी, 2009 को उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने ठाणे, वाशी और पनवेल के बम विस्फोटों की जांच की थी। 29 सितम्बर, 2006 को मालेगांव में हुए विस्फोट की जांच से वे काफी चर्चित हुए।
करकरे ने विश्वेसवरैया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी. ई. की डिग्री ली थी। इंजीनियर बनने के बाद उन्होंने कुछ समय हिन्दुस्तान लीवर में काम किया। वे सन 1982 के बैच के आईपीएस अधिकारी थे। जनवरी, 2008 में महाराष्ट्र का एटीएस प्रमुख बनने से पहले वे मुम्बई पुलिस के संयुक्त आयुक्त (प्रशासन) थे। वे सात साल तक ऑस्ट्रिया में रॉ के अधिकारी रहे थे। पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो ने करकरे को महाराष्ट्र ही नहीं, देश के सबसे ईमानदार पुलिस अधिकारियों में एक माना था।

अशोक काम्टे
23 फरवरी, 2965 को जन्मे अशोक काम्टे मुम्बई पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त (पूर्वी क्षेत्र) थे। उन्होंने इस्माइल की गोलियों का शिकार होने से पहले अपनी एके 47 से फायरिंग करके कसाब को घायल कर दिया था।
काम्टे पांच साल तक कोडाईकनाल इंटरनेशनल हाई स्कूल में पढ़े थे। वहीं से उन्होंने सन् 1982 में 12 वीं पास की। उन्हें सन् 1980 में एक अंतरराष्ट्रीय छात्रवृत्ति मिली थी। उन्होंने 1985 में मुम्बई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बी. ए. और सन् 1987 में दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से एम. ए. किया। वे एक अच्छे खिलाड़ी भी थे। उन्होंने सन् 1978 में पेरू में जूनियर पावर लिफ्टिंग प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व किया था।
काम्टे सन् 1989 में आईपीएस बने। उनकी पहली नियुक्ति भंडारा में हुई। वे 1999/2000 में संयुक्त राष्ट्र के मिशन में बोस्निया गए। जून 2008 में वे सोलापुर से एसीपी बनकर मुम्बई आए। वे नक्सलवादी विरोधी कार्रवाई में माहिर थे। उन्हें 1999 में संयुक्त राष्ट्र पदक मिला था। 26 जनवरी 2009 को उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी विनीता और दो बेटे राहुल (15) व अर्जुन (8) हैं। उनके पिता सेना अधिकारी थे।

विजय सालस्कर
इंस्पेक्टर विजय सालस्कर सन् 1983 के बैच के पुलिस अधिकारी थे। वे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट थे। उन्होंने 75 से ज्यादा गुंडों का एनकाउंटर किया था। वे 26 नवम्बर को करकरे और काम्टे के साथ कामा अस्पताल के पास इस्माइल की गोलियों का शिकार हुए। उस समय वे ड्रायविंग सीट पर थे, अन्यथा एनकाउंटरों के अनुभव से वे इस्माईल और कसाब का मुकाबला कर सकते थे। उन्हें 26 जनवरी 2009 को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
सालस्कर ने मुम्बई विश्वविद्यालय से एम. कॉम किया था। पुलिस में आते ही राजा शाहबुद्दीन जैसे नामी गुंडे का एनकाउंटर करके वे सुर्खियों में आ गये थे। उन्होंने अमर नाईक, जग्गू शेट्ट�ी, साधु शेट्ट�ी, कुंदर सिंह रावत और जहूर माश्वंदा जैसे दुर्दांत गुंडों का एनकाउंटर किया। उन्होंने सन् 1997 में अरुण गवली के दो गुंडों सदा पावले और विजय टंडेल का एनकाउंटर किया।

मेजर संदीप उन्नीकृष्णन
15 मार्च, 1977 को कालीकट (केरल) में जन्मे संदीप उन्नीकृष्णन भारतीय सेना में मेजर थे और एनएसजी में तैनात थे। वे ताज होटल में आतंकवादियों से लड़ते हुए मारे गए। उन्हें 26 जनवरी 2009 को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
संदीप इसरो के सेवानिवृत्त अधिकारी के. उन्नीकृष्णन के एकमात्र पुत्र थे। वे 14 साल बंगलौर में फ्रैक एंथोनी पब्लिक स्कूल में पढ़े। उन्होंने सन् 1995 में विज्ञान में 12 वीं की। वे एक अच्छे एथलीट थे।
12 वीं करने के बाद संदीप का चयन एनडीए में हुआ। वे एनडीए के 94 कोर्स में थे। वे 12 जुलाई 1999 को बिहार रेजीमेंट की सातवीं बटालियन में सेकंड लेफ्टिनेंट बने। जम्मू कश्मीर और राजस्थान में पोस्टिंग के बाद उनका चयन एनएसजी में हो गया। वहां प्रशिक्षण के बाद उन्हें जनवरी 2007 में स्पेशल एक्शन ग्रुप (एसएजी) में शामिल किया गया।

गजेन्द्र सिंह बिष्ट
36 वर्षीय हवलदार गजेन्द्र सिंह बिष्ट नरीमन हाऊस में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। उनका सपना बचपन से ही सैनिक बनने का था। बारहवीं पास करने के बाद उन्होंने सन् 1991 में सेना में जाने की बात अपने घर पर की तो उनके पुलिस अधिकारी भाई वीरेन्द्र सिंह बिष्ट ने उन्हें पुलिस में जाने को कहा। पर उनकी जिद देखकर परिवार ने उन्हें सेना में जाने की मंजूरी दे दी।
गजेन्द्र सन् 1991 में गढ़वाल राईफल्स में भर्ती हुए। फिर उन्हें 10 पैरा (विशेष बल) के लिए चुना गया। उन्होंने कारगिल संघर्ष में भी भाग लिया था। उन्हें जब 26 नवम्बर की रात को मुम्बई जाने के लिए तैयार होने का आदेश मिला, तो वे खाना खा रहे थे। दो दिन बाद, नरीमन हाउस की तीसरी मंजिल पर वे शहीद हो गए। उत्तराखंड में उनके अंतिम संस्कार में जनसमूह उमड़ पड़ा। जिस जनता इंटर कॉलेज में वे पढ़े थे, उसमें उनके शोक में एक दिन का अवकाश रखा गया। गजेन्द्र अपने बेटे गौरव (12) को सेना अधिकारी और बेटी प्रीति (10) को एयरहोस्टेस बनाना चाहते थे। उनका यह सपना पूरा करने की जिम्मेदारी अब उनकी विधवा विनीता देवी (31) ने ली है। गजेन्द्र सिंह को 26 जनवरी 2009 को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।

इंस्पेक्टर शशांक शिंदे
सन् 1987 के बैच के पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर शशांक शिंदे कुछ साल क्राइम ब्रांच में भी रहे थे। प्रोटेक्शन विभाग और ट्रैफिक पुलिस में भी उन्होंने काम किया। फिर उनका तबादला आरपीएफ में हो गया। वे अपराधों की जांच पड़ताल में माहिर थे और ऑपरेशन में अपनी जान की भी परवाह नहीं करते थे।
26 नवम्बर की रात शशांक शिंदे अपनी ड्यूटी खत्म होने पर जाने की तैयारी कर रहे थे। फायरिंग की आवाज सुनकर वे मौके पर पहुंचे। उन्होंने अपने सर्विस रिवॉल्वर से दो फायर किए, पर एके 47 की गोलियां पेटल में लगने पर वे वहीं शहीद हो गए। इस हमले में आतंकवादियों का मुकाबला करने वाले वे पहले पुलिस अधिकारी थे। अपनी वीरता से उन्होंने इस्माइल और कसाब की सीएसटी में लोगों को बंधक बनाने की साजिश कामयाब नहीं होने दी।
शिंदे की पत्नी मानसी एलआईसी में क्लर्क हैं। उनकी बेटी निवेदिता इंजीनियरिंग और अदिति 10 वीं की छात्रा है। 46 वर्षीय शिंदे को मरणोपरांत कीर्ति चक्र दिया गया।

सब इंस्पेक्टर प्रकाश मोरे
एल. टी. मार्ग के सब इंस्पेक्टर प्रकाश मोरे (46) पुलिस को जनता का सेवक मानते थे और इसीलिए वे काफी लोकप्रिय थे। वे 26 नवम्बर की रात एसीपी सदानंद दाते के साथ कामा अस्पताल में गए। वहां दो आतंकवादियों इस्माइल और कसाब से उनका सामना हुआ। मोरे के पेट और छाती में आठ गोलियां लगीं और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया।
प्रकाश मोरे के पिता भी पुलिस में थे। इसलिए वे बचपन से ही पुलिस में जाने को कहते थे। पुलिस की वर्दी पहनकर उन्होंने आखिरी सांस तक वर्दी का फर्ज निभाया। उन्होंने फिंगर प्रिंट ब्यूरो और स्पेशल ब्रांच में भी काम किया था। उनके परिवार में उनकी पत्नी माधवी और बेटा प्रतीक (19) व बेटी अनुष्का (13) है। प्रतीक कम्प्यूटर इंजीनियरिंग का छात्र है।

एएसआई तुकाराम ओंबले
डीबी मार्ग पुलिस थाने के असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम ओंबले (48) अदम्य शौर्य का परिचय देते हुए 26 नवम्बर की रात निहत्थे ही आतंकवादियों से भिड़ गए थे। गिरगांव चौपाटी पर उनके साथियों ने इस्माइल को तो गोलियों से भून दिया, लेकिन कसाब हाथ ऊपर करके कार से बाहर निकला। ओंबले उसकी ओर बढ़े तो उसने एके 47 से फायरिंग शुरू कर दी। ओंबले ने उसकी राईफल की नाल पकड़ ली और तब तक नहीं छोड़ी, जब तक कि सारी गोलियां खत्म नहीं हो गई। अपने पेट में गोलियां खाकर ओंबले तो शहीद हो गए, पर कसाब जिंदा पकड़ा गया। दस हमलावरों में से इस एकमात्र गिरफ्तारी की वजह ओंबले का बलिदान ही था।
ओंबले की दो बेटियों की शादी हो चुकी है और दो बेटियां अभी पढ़ रही हैं। वे शौर्य की एक गर्वीली मिसाल छोड़ गए। उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र दिया गया।

कांस्टेबल अरुण चित्ते
इंस्पेक्टर विजय सालस्कर के ड्राइवर अरुण चित्ते (37) मेट्रो जंक्शन के पास इस्माइल की गोलियों से शहीद हुए। दरअसल विजय सालस्कर अपना वाहन छोड़कर एसीपी पायधुनी की गाड़ी से कामा अस्पताल की ओर गए थे। अरुण चित्ते पुलिस मुख्यालय से मेट्रो की ओर होते हुए कामा के पास जाने की कोशिश कर रहे थे कि हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर को मारने के बाद उनका वाहन छीनकर भागते इस्माइल की गोली ने उनकी जान ले ली। उनके परिवार में उनकी पत्नी मनीषा (28) और तीन बेटियां कोमल (10) स्नेहल (9) व खुशी (4) हैं। अरुण चित्ते को मरणोपरांत कीर्ति चक्र दिया गया।
सब इंस्पेक्टर बाबू साहेब डुरगुडे

49 वर्षीय सब इंस्पेक्टर बाबू साहेब डुरगुडे को शायद यह मलाल रहा होगा कि वे वर्दी में शहीद नहीं हुए। लोकल आम्र्स यूनिट, नामगांव में तैनात डुरगुडे एटीएस की असॉल्ट वैन से सम्बद्ध थे। दिनभर काम करके वे उस रात घर पहुंचे ही थे कि उन्हें फायरिंग की सूचना मिली। उनके पास वर्दी पहनने का समय नहीं था। वे अपना सर्विस रिवाल्वर लेकर कामा अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। कुछ मिनट बाद ही वे कामा अस्पताल के पास शहीद हो गए। उनकी शहादत का पता भी अगली सुबह चला, क्योंकि वर्दी में न होने के कारण उन्हें नागरिक समझ लिया गया।
डुरगुडे के परिवार में उनकी पत्नी और तीन बच्चे हैं। उनके तीनों बच्चे पूनम, नीलम और विशाल इंजीनियरिंग पढ़ रहे हैं। डुरगुडे शुरू से ही अपने तीनों बच्चों को इंजीनियर बनाना चाहते थे। पर अपने इस सपने को साकार होते देखने के लिए वे नहीं रहे।(जारी )



(पत्रकार भुवेन्द्र त्यागी की किताब 'दहशत के 60 घंटे से')

(भुवेन्द्र त्यागी ढाई दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर और लैक्चररशिप के लिए नैट क्वालिफाई करने के बावजूद अखबारनवीसी से रिश्ता बनाया। दैनिक जागरण, मेरठ से करियर शुरू किया। नवभारत टाइम्स, मुम्बई में वरिष्ठï पत्रकार। पिछले एक दशक से पत्रकारिता शिक्षण में भी सक्रिय। अभी तक पांच किताबें लिखी हैं। उनसे संपर्क इस ई-मेल आईडी पर किया जा सकता है-bhuvtyagi@gmail.com )

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