विशेष लेख- जो शहीद हुए.... (02) -भुवेन्द्र त्यागी
कांस्टेबल विजय खांडेकर
कांस्टेबल विजय खांडेकर (36) आजाद मैदान पुलिस थाने में तैनात थे। वे अपने पिता और चाचा से पुलिस की बहादुरी की कहानियां सुनकर बड़े हुए थे। वे सन् 1992 में पुलिस में भर्ती हो गए। हमले की रात उन्हें कामा अस्पताल के पास तैनाती का आदेश मिला। वे कामा अस्पताल पहुंचे ही थे कि एक आतंकवादी की गोली उनके गले में लग गई। उन्होंने जीटी अस्पताल में दम तोड़ा। उनके परिवार में उनकी पत्नी श्रद्धा और तीन साल की बेटी आकांक्षा है।
कांस्टेबल अम्बादास पवार
कांस्टेबल अम्बादास पवार (29) के भाई की सातारा में कावटे गांव में एक दिसम्बर को शादी होने वाली थी और वे वहां जाने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन वे सीएसटी पर दो गोलियां खाकर शहीद हो गए। वे नाइट ड्यूटी पर जाने के लिए सीएसटी पहुंचे ही थे कि उन्हें फायरिंग की आवाज सुनाई दी। उन्होंने कई यात्रियों को स्टेशन से बाहर निकाला और आगे बढ़े तो देखा कि आतंकवादियों पर फायर करते एक कांस्टेबल की राइफल लॉक हो गई है। पवार सेना में भी रह चुके थे। उन्होंने अपना परिचय देकर राईफल ली और उसे अनलॉक करके वे इस्माइल पर निशाना लगा ही रहे थे कि कसाब ने उन्हें पीछे से गोली मार दी।
पहले तो यह लगा कि पवार अन्य लोगों की तरह आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गए, लेकिन सीसीटीवी की रिकार्डिंग से पता चला कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर आतंकवादियों का सामना किया था। उन्हें मरणोपरांत कीर्ति चक्र मिला।
एएसआई बाला साहेब भोसले
एएसआई बाला साहेब भोसले वह वाहन चला रहे थे जिसमें करकरे, काम्टे और सालस्कर थे। सालस्कर ड्राइव करने लगे तो भोसले पीछे बैठ गए। कामा अस्पताल के पास वे करकरे, काम्टे और सालस्कर के साथ शहीद हो गए। एक सैनिक के रूप में भोसले ने सन् 1971 में भारत पाक युद्ध में भी भाग लिया था।
भोसले का बड़ा बेटा दीपक भी पुलिस में है और अब छोटा बेटा सचिन भी पुलिस की वर्दी पहनकर देश के लिए कुछ करना चाहता है। भोसले का सपना रिटायर होने से पहले अपने परिवार के लिए कार लेने का था। अब दीपक का कहना है कि अपने पिता का यह सपना वे पूरा करेंगे।
कांस्टेबल योगेश पाटील
अगर एक सप्ताह पहले ही कांस्टेबल योगेश पाटील को एसीपी के कार्यालय में रीडर बनाकर नहीं लाया जाता, तो शायद वे आज जिंदा होते। योगेश (24) लोकल आम्र्स यूनिट 3, वर्ली में तैनात थे। एसीपी के रीडर के अवकाश पर जाने के कारण उन्हें एक सप्ताह पहले रीडर बनाकर वहां भेजा गया। वे करकरे, काम्टे और सालस्कर के साथ ही कामा अस्पताल के पास शहीद हुए। इस हमले में शहीद हुए वे सबसे युवा पुलिसकर्मी थे।
कांस्टेबल जयंत पाटील
कांस्टेबल जयंत पाटील (35) अपने नवजात बेटे का नाम शौर्य रखना चाहते थे। लेकिन बेटे के नामकरण संस्कार से पहले ही वे शहीद हो गये। उनकी इच्छा के अनुसार, बाद में उनके बेटे का नाम शौर्य ही रखा गया।
जयंत पाटील तीन बहनों में सबसे छोटे भाई थे। वे भांडुप की एक चाल में बड़े हुए थे। वे अशोक काम्टे के बॉडीगार्ड थे और कामा अस्पताल के पास उनके साथ ही शहीद हुए। उनके परिवार में उनकी पत्नी प्रतिभा, बेटी ईशा और बेटा शौर्य हैं।
कांस्टेबल राहुल शिंदे
कांस्टेबल राहुल शिंदे माडा गांव के एक किसान के बेटे थे। वे सोलापुर यूनिट में तैनात एसआरपीएफ कांस्टेबल थे। उन्होंने सन् 2006 में अपनी नियुक्ति के समय शारीरिक परीक्षण तो पास कर लिए थे, पर एक लिखित परीक्षा रह गई थी। उन्होंने 14 नवम्बर को वह परीक्षा दी थी। वे हमले की रात डीसीपी (जोन 1) विश्वास नागरे पाटील के साथ ताज होटल में गए। वहां आतंकवादियों के ग्रेनेड से वे शहीद हो गए।
राहुल के परिवार की खेती बहुत कम है। वे अपने परिवार में अकेले कमाने वाले थे। उनकी शहादत से उनका परिवार अभाव के घेरे में आ गया है।
हेड कांस्टेबल एम. सी. चौधरी
आरपीएफ के हेड कांस्टेबल एम. सी. चौधरी को रिटायर होने में छह साल बचे थे। सीएसटी पर आतंकवादियों की एक गोली ने अपने बच्चों को पैर पर खड़ा करने का उनका सपना तोड़ दिया। सात भाइयों और तीन बहनों में से एक एम. सी. चौधरी का जीवन बहुत मुश्किलों भरा रहा था। उन्हें अपनी बेटी प्रियंका की शादी करनी थी, जबकि उनका बेटा देवेश (14) अभी स्कूल में पढ़ता है।
उस रात 11 बजे चौधरी की ड्यूटी खत्म होने वाली थी। वे सीएसटी के प्लेटफार्म नंबर 7 पर तैनात थे। वहीं वे आतंकवादियों का निशाना बनकर शहीद हुए।
होमगार्ड मुकेश जाधव
35 वर्षीय होमगार्ड मुकेश जाधव उस रात यात्रियों का सामान चेक करने की ड्यूटी पर थे। पार्सल रूम के पास आतंकवादियों ने उन पर गोली चलाई। इस हमले में वे पहले वर्दी वाले शहीद थे। गोली लगने के बावजूद मुकेश ने 50 गज चलकर रेलवे पुलिस को घटना की सूचना दी। आतंकवादियों की एके 47 का मुकाबला करने के लिए उनके पास केवल लाठी थी। कोंकण के अपने परिवार में वे कमाने वाले अकेले थे। उन्हें मरणोपरांत कीर्ति चक्र दिया गया।
(पत्रकार भुवेन्द्र त्यागी की किताब 'दहशत के 60 घंटे से')
(भुवेन्द्र त्यागी ढाई दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर और लैक्चररशिप के लिए नैट क्वालिफाई करने के बावजूद अखबारनवीसी से रिश्ता बनाया। दैनिक जागरण, मेरठ से करियर शुरू किया। नवभारत टाइम्स, मुम्बई में वरिष्ठ पत्रकार। पिछले एक दशक से पत्रकारिता शिक्षण में भी सक्रिय। अभी तक पांच किताबें लिखी हैं। उनसे संपर्क इस ई-मेल आईडी पर किया जा सकता है-
bhuvtyagi@gmail.com )
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