Friday, December 3, 2010


सौरभ की समीक्षा-- फिल्म 'फँस गए रे ओबामा'

फिल्म की कहानी जब किरदार, कलाकार, बजट, डायरेक्टर के नाम से आगे जाती दिखाई दे तो उसे देख लेना चाहिए। छोटी सी रोचक कहानी, छोटे कलाकारों के साथ बनी, छोटे बजट के कारण कम प्रचारित एक ऐसी फिल्म जिसे कहीं न कहीं देखा जा सकता है।

मौजूदा हालातों पर अपनी चालाक कहानी, चतुर किरदारों के जरिए मनोरंजन देती 'फंस गए रे ओबामा'। ओबामा का ज़िक्र यहां केवल उनके मशहूर भाषण की लाईन Yes We Can की वजह से और थोड़ा बहुत अमेरिका से आए एक किरदार की वजह से।

खत्म होने के बाद होठों पर मुस्कुराहट छोड़ने में कामयाब होती फिल्म। फिल्म कहीं हंसाने की कोशिश नहीं करती बल्कि आपको कहानी में फंसाती है। छोटे कलाकार, छोटे रोल में थोड़ी थोड़ी देर के लिए फिल्म में आते-जाते रहते हैं और फिल्म के प्रवाह में फिट बैठते हैं। अपने अस्तित्व से वाकिफ फिल्म कोई बड़ा सपना साकार करने की कोशिश नहीं करती। सिर्फ कहती है एक ऐसी कहानी जो बिना शोर के सिस्टम पर चुपके से तमाचा जड़ती है।

अमेरिकी मंदी को भारत के किसी कस्बे या शहर के छोटे किडनैपिंग रैकेट से जोड़ना नयापन दे जाता है। दिखाता है कि हालात हर जगह हर देश में आदमी के लिए लगभग एक से हैं और बेबसी का आलम, अलग अलग किस्म में सब के जीवन में पैठ बना चुका है।

किसी की तारीफ या ज़िक्र यहां हो या न हो, लेकिन फिल्म को लिखने, बनाने और निर्देशित करने वाले सुभाष कपूर की चर्चा ज़रूर होनी चाहिए। 'तेरे बिन लादेन' के बाद शायद साल की दूसरी छोटी और अच्छी फिल्म। किसी गाने पर टाईम खराब न कर सुभाष कपूर ने साफ किया है कि उनका मकसद फॉर्मूला फिल्म का हर मसाला डालना नहीं है। इस तरह की कोशिशों से साबित होती यह बात भी कि फिल्म का दायरा केवल सितारे और उनकी मौजूदगी तक ही सीमित नहीं।

साफ लिख रहा हूं, इस फिल्म को देख लेने में कोई बुराई नहीं।

इस फिल्म की समीक्षा पर आप अपनी प्रतिक्रिया सौरभ कुमार गुप्ता के फेसबुक एकाउंट के नीचे दिए गए लिंक पर जाकर दे सकते हैं .

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