Friday, January 21, 2011
सौरभ की समीक्षा--धोबी घाट
(सौरभ कुमार गुप्ता / नई दिल्ली )
एक बेवफा शहर की दास्तान, आमिर खान की नई फिल्म मानो जैसे एक उपन्यास है। फिल्मी उपन्यास। वो जिसे पहले किरन राव ने मन में गढ़ा, कागज़ पर उतारा और फिर फिल्माया। कुछ जिंदगियों के केवल चलते रहने, कुछ के खत्म हो किसी और के ज़रिए चलने और कुछ कभी न चल सकने वाले संबंधों की कथा।
कुछ आम दिनों की कहानी है फिल्म की, जिनमें घटता भले ही बताने लायक कुछ विशेष न हो, लेकिन फिर भी जिंदगी का एक दिन कम हुआ चला जाता है। निर्देशक ने इसी तरह सालों से एक समान लगने वाली, कुछ किरदारों के चंद दिनों की कहानी पेश की है, जिसमें घटता तो बहुत कुछ है लेकिन भावनात्मक स्तर पर।
फिल्म में सन्नाटा बोलता है, किरदारों की तन्हाई पीछे बज रहे गीतों में गूंजती है और पेंटिंग्स फिल्म में रंग सा भरती हैं। ऐसा सिनेमा जो खुद अपनी छाप छोड़ता है, रोज़ाना के दृश्य दिखाता, जिंदगी को जिंदगी की तरह पेश करता, कुछ अनजान कहानियों को धागे से पिरोता, संजोता।
किसी भी उपन्यास की तरह ही इस उपन्यास के हर पन्ने का न तो रोमांच से भरा होना संभव था और न ही किरदारों के हर कदम को मतलब देने में सक्षम होना मुमकिन। शायद इसीलिए यह फिल्म शहरी जीवन और उसमें बसे किरदारों के जीवन की अनसुलझी उलझन की कहानी कहती है।
कोई जवान शीला इस फिल्म में नहीं नाचती, कोई मुन्नी इसमें बदनाम नहीं होती और न ही किसी टिंकू जिया को धड़काने की बनानेवाले ने कोशिश की है। किसी हीरो के एक मुक्का मारने पर इसमें दस गुंडे हवा में उड़ते नज़र नहीं आते। फिल्म में हमारे जीवन की तरह ही जिंदगी अपने अंदाज़ में स्पेशल इफैक्ट पैदा करती है।
आपके सामने पेश है वो सिनेमा जो सामने दिखते हुए मन में शब्दों को जन्म देता है और गुज़ारिश सी करता है कि मुझे खारिज कर सज़ाए-मौत न दी जाए।
प्रतीक बब्बर, मोनिका डोगरा, कीर्ति मल्होत्रा--ये वो नाम हैं जिन्होंने फिल्म के किरदारों को जीवन दिया। आमिर के नाम से पहले इनके नाम इसलिए कि आमिर का ज़िक्र अलग से बनता है। इतना सहज, संजीदा और रीयल लाईफ आमिर की किस्म का किरदार पर्दे पर उतार कर निर्देशक और खुद आमिर ने बेमिसाल काम किया। इस किरदार को निभाते वक्त आमिर दर्शक को अपने पुराने किसी किरदार की याद नहीं आने देते। जवानी की छवि से दूर आमिर थोड़े से बाल भी सफेद करने में नहीं झिझके।
फिल्म की कहानी में एक कहानी देख और सुन कोई गुत्थी सुलझा जाता पेंटर, एक धोबी जो मॉडल होने की हसरत पाले है और साथ ही लड़की को एकतरफा प्यार करता है। देसी अमीर बाप की विदेश से लौटी संवेदनाशील लड़की। और कैमरा। कैमरे की दो किस्मों ने फिल्म में एक अलग रोल अदा किया है। स्टिल कैमरा और वीडियो कैमरा जो फिल्म में दो महिला किरदारों को मकसद और मौका देता है अपनी बात कहने का।
उपन्यास कई लिखे जाते हैं। कुछ पढ़कर पसंद आते हैं और कुछ नहीं। बिना ठहाके, गाने और इंटरवल वाले इस तनावमुक्त फिल्मी उपन्यास के प्रयोग को पढ़ने देखने का मन हो और कुछ पढ़ने की क्षमता रखते हों तो फिल्म थोड़े धैर्य के साथ देख सकते हैं।
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