Saturday, January 8, 2011
(सौरभ कुमार गुप्ता / नई दिल्ली )
आकर्षक न्यूज़ टाईटल से अपनी ओर खींचती, उसमें छिपे सवाल को उठाती, अंधे कानून के सामने लोगों को अंधा न होने के प्रति सचेत करती, किरदारों के जीवन के तनाव को दर्शकों का बनाती, सिनेमा को खुद मास मीडियम होने का अहसास दिलाती फिल्म और साथ ही यह बताती कि SomeOne Did Kill Jessica.
फिल्मों के मामले में साल की अच्छी शुरूआत। कुछ तो अंदाज़ा था कि फिल्म कैसी होगी। ऐसी कहानी जो ज्यादातर सबने पढ़ी, देखी, सुनी। फिल्म बनाने वाले के लिए भी यही सबसे बड़ी चुनौती रही होगी और शायद फिल्म देखने का मन बना रहे दर्शकों के लिए भी। लेकिन केवल एक अच्छा रिपीट टेलिकास्ट बनाने की बजाय अपने आप में एक कंप्लीट फिल्म बनाने की कामयाब कोशिश।
फिल्म की कहानी जानते हैं, समझते हैं, ऐसे में फिल्म आपको क्या नया देगी? किरदार। वो किरदार जिन्हें सिर्फ बयान देते सुना, न्यूज़ कैमरे पर नाराज़ होते देखा, पर्दे के पीछे खेल करते देखा, बरी होते, झूठ बोलते देखा, फिर मौज करते पाया। फिल्म इन किरदारों को जीवंत करती है। इनके दर्द, संघर्ष, मक्कारी, फरेब को आंख के सामने ला खड़ा करती है।
सिनेमा के पर्दे पर अखबार और टीवी का उतर आना और उनके ज़रिए ही कहानी गढ़ना इस फिल्म को पूरा बनाता है। यानि इस स्क्रिप्ट में न केवल कलाकार हैं बल्कि मास मीडिया के इन दो साधनों ने भी अहम रोल निभाया है। रीयल लाईफ, न्यूज़नुमा रीयल टीवी का गठजोड़ इस तरह की फिल्म को शायद एक नई श्रेणी प्रदान करता है-- रीयैलिटी सिनेमा।
शायद सबसे नायाब बात--- फिल्म आपको जैसिका से मिलवाती है। उसे जीने का एक और मौका देती है। उसी जैसिका से जो कहानी की जड़ में है। उसी जैसिका से जो इतने साल हर बार स्टोरी के सामने आने पर केवल हमारी कल्पना में ही मौजूद थी। जैसिका के अच्छे-बुरे, सही-गलत होने पर सवाल न खड़ा करते हुए, उसकी हत्या के बाद के संघर्ष को सही संतुलन में पेश करती फिल्म।
अहसास हो आया कि संभव है जैसिका अब तक लंबे खिचे केस के ज़रिए और अब इस फिल्म के माध्यम से ही अपनी जिंदगी पूरी कर रही है।
फिल्म की मंशा किसी केस के संघर्ष और उसमें मीडिया और आम जनता की भूमिका से मिली सफलता पर खुश होना नहीं है। फिल्म दर्शाना चाहती है उस मर्म को, किरदारों के मन के भीतर के उस तूफान को जिसे वो खुद कभी महसूस करते हैं और कभी नहीं। फिल्म के संगीत, गीत और उनके बोल का ज़िक्र यहाँ विशेष रूप से इसलिए क्यूंकि वो फिल्म की भावना और रूह को जिंदा रख एक अलग स्तर पर ले जाते है।
एक गाने के बोल बतलाते हैं कि दिल सिस्टम पर ऐतबार कर रो रहा है और वो गन्दा मज़ाक बन चुका ऐतबार झूठा गुबार, रस्ते की ख़ाक बन रातों को कुढ़ता है, चिढ़ता है, सड़ता है। सिस्टम से लड़ने वालों की उम्मीद उधड़ चुकी है, रूह झुलस गयी है।
केस की तरह फिल्म में भी दो पड़ाव हैं, दो ऐसे किरदार हैं जो पैरेलल चलते हैं और अंत में मिलते हैं। एक ही समय में दो किरदार-- एक विद्या का हताश, निराश और विफलता हासिल करते हुए और दूसरा रानी का सफलता, शोहरत और ओहदा पाते हुए। एक अलग बड़े हिस्से में विद्या और दूसरे बड़े हिस्से में रानी। लेकिन दोनों अपने मायनों में संघर्षशील।
कुछ सीन संवादहीन होने के बावजूद बेहद पावरफुल नज़र आए और अनेकों बार अहसास हुआ कि ख़ामोशी की भाषा कई बार किसी भी संवाद से अधिक ताकतवर होती है।
फिल्म की कुछ खामियों को नज़रअंदाज़ कर भी दिया जाए तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। भले ही रानी, बरखा दत्त के किरदार में बखूबी न ढल पाई हों, भले ही एक दो सीन गैर ज़रूरी लगें, भले ही फिल्म 'रंग दे बसंती' वाली भावना न जगा पाती हो, तब भी ये देखे जाने योग्य है। और देखने योग्य यह भी कि हमें याद नहीं रहता कि विद्या बालन कब सबरीना लाल में तब्दील हो गईं। पर्दे पर दिल्ली के मध्यम वर्गीय परिवार का जीवन, उसका संघर्ष भी सटीक लगता है।
खास बात यह कि फिल्म किसी काल्पनिक किरदार पर आधारित न होकर पूरी तरह एक ऐसे असल किरदार पर आधारित है जिसकी जिंदगी की कीमत वाकई शराब के एक जाम से कम की साबित हुई। फिल्मकारों और दर्शकों, दोनों को इस तरह के गंभीर सिनेमा को खुले दिल से और मौका देना चाहिए।
और हाँ, पूरी फिल्म के दौरान एक महिला तीन अलग अलग बार आकर पीछे से एक ही बात कहती है -- ' देखो जी, आप कुछ भी करो, लेकिन मेरे मोनू को कुछ नहीं होना चाहिए, बस।'
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