Thursday, April 14, 2011
कुछ मन की
विवेक प्रकाश मेरे लिए
(सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
2005 के अप्रैल के महीने में अभिषेक और मैंने ये तय किया कि हमें नौकरी की तलाश तो शुरू कर ही देनी चाहिए। मिले या न मिले ये अलग मसला है। हमने जिस संस्थान से शुरूआत की वहीं मुझे नौकरी का मौका भी मिल गया। लेकिन वहां एक छोटे से टेस्ट के सिलसिले में जिस व्यक्ति से मुलाकात हुई उसके बारे में आज यहां लिखना ज़रूरी हो गया है। फ्रेंच कट दाढ़ी रखे हमें हमारा टेस्ट पेपर विवेक प्रकाश ने थमाया। उस समय न तो ये उम्मीद थी कि नौकरी मिलेगी और न ही ये तय था कि यह पहली मुलाकात लगभग छः साल की दोस्ती में तब्दील हो जाएगी। किसी से बिछड़ने के गम में भाषा किस तरह मन में शब्द उपजाती है यह अहसास पिछले तीन दिन से है।
विवेक प्रकाश का ट्रांसफॉरमेशन कब विवेक भाई में हो गया ये याद नहीं। उम्र में मामूली अंतर के साथ दोस्ती और आदर ने जीवन में एक साथ प्रवेश किया। विवेक भाई का मिलनसार स्वभाव और कई बातों में उसकी सहजता ने हम दोनों को यह अहसास करवाया कि एक ही डेस्क पर होने के बावजूद किस तरह दोस्त बनकर भी रहा जा सकता है। इस बीच मैंने शादी कर ली और शादी और घर परिवार के कुछ काम में विवेक का सहयोग भी मिला। घर पर आना जाना तो लगा ही रहता था। शायद ही कोई बात हम लोग एक दूसरे से छिपाते हों। कई बार काम के चलते कुछ तनाव हुए भी तो वो वक्त के चलते धुंआ हो गए। हम दोनों अलग परिवेश और प्रांत से आते हैं फिर भी हमने हमेशा आपस में और अपने आस पास के लोगों को जोड़ने की ही कोशिश की। एक दूसरे के परिवेशों और सरोकारों को जानने से समझ में इज़ाफा तो हुआ ही साथ ही भावनात्मक स्तर पर जुड़ने का मौका मिला। चैनल छोड़ जब मैं कुछ समय के लिए दूसरी नौकरी करने लगा तब भी हमारे भरसक प्रयास यही रहे कि हम किसी तरह फिर साथ में काम करें। पर संयोग से छः महीने तक ऐसा नहीं हो पाया। लेकिन इस बीच हम लोग हर सप्ताह मिलते भी रहे। संयोग से हमें फिर पुराने संस्थान में काम करने का मौका मिला और हमने एक दूसरे को साथ काम में आगे बढ़ते पाया। एक दूसरे की तरक्की में संतोष कर पाना आज के माहौल थोड़ा मुश्किल ज़रूर होता है पर ये दोस्ती का ही नतीजा था कि अपने बीच ये स्थिति नहीं आ पाई। मैं कहीं इंटरव्यू देने जाता तो पहले ही बता देता और ऐसा ही विवेक ने भी किया।
इस बार विवेक भाई को अच्छी तरक्की नसीब हुई है और हम सब दोस्त यही चाहते हैं कि उनकी ये पारी अच्छी रहे। विवेक भाई के साथ साथ ये कुछ अन्य दोस्तों की ही बदौलत है कि ऑफिस आना, कॉलेज आने जैसा लगता रहा और कभी काम की थकान से तनाव नहीं हुआ। हंसी मज़ाक करते करते कब इतना लंबा समय बीत गया इसका अंदाज़ा पीछे मुड़कर देखने पर ही होता है। हम में से कोई एक यदि फिक्रमंद होता तो दूसरा उसे बेफिक्री देता। यही हमने एक दूसरे से पाया। कम सैलरी और ज़ीरो तरक्की के बाद भी मन में उत्साह बनाए रखा। ये बिछड़ना किताब का एक पन्ना भर है, हम सब को मिलकर इसमें अभी कई चैप्टर जोड़ने हैं।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं. )
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