दूसरों से अलग हैं दिव्या दत्ता
फ़ज़ल इमाम मल्लिक
ईद की छुट्टियों के बाद लौटा ही था कि सुकृति कालरा का मेल मिला। सुकृति ने मेल के जÞिरए मुझे जानकारी दी थी कि दिव्या दत्ता दिल्ली आने वाली हैं और वे कुछ लोगों से मिलना चाहती हैं। फिर सुकृति से फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि दिव्य दत्ता मनोरंजन चैनल मैक्स के लिए एक टीवी कार्यक्रम की मेजबानी करने जा रही हैं। फ़िल्मों को आधार बना कर पेश किए जाने वाले कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रा शॉट्स चैलेंज’ की होस्ट दिव्या होंगी। यक़ीनन इस जानकारी ने उत्सुकता बढ़ाई थी। दिव्या को छोटे परदे पर इस तरह के कार्यक्रम की मेज़बानी करते देखना एक अलग तरह का अनुभव होगा, इसलिए नहीं कि वे फ़िल्मों से जुड़ी हैं बल्कि इसलिए कि वे एक बेहतरीन अदाकारा हैं और अपने अभिनय से लोगों को उन्होंने क़याल भी बनाया है। भले ही वे सहायक किरदारों में नज़र आती रहीं हों लेकिन अपने हर किरदार को बेहतरीन ढंग से उन्होंने जिया है और अपने अभिनय से फ़िल्म को वुसअत भी दी। वे ख़ूबूसरत तो हैं ही उतनी ही अच्छी उनकी आवाज़ है जो उनके अभिनय को लोगों तक बेहतरीन ढंग से संपे्रषित करती है।
दिव्या दत्ता का नाम सामने आते ही उनके कई चेहरे ज़ेहन में कौंधने लगते हैं। कई फ़िल्में फ्लैशबैक में नज़रों के सामने से गुज़र जाती हैं। एक के बाद दूसरा चरित्र लेकिन इन चरित्रों के बावजूद सामने सिफर्Þ एक नाम रह जाता है एक चुलबुली और खिलंडरी सी अदाकारा दिव्या दत्ता का। परदे पर उन्हें देखना बराबर ही सुखद रहा क्योंकि उनके अभिनय में एक अलग तरह की ताज़गी हमेशा ही दिखाई देती है। इसलिए इस न्योते पर मैंने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा डाली। पत्रकारिता के लंबे करिअर में फिल्म, खेल, मनोरंजन, कला, साहित्य से जुड़ी हस्तियों से मिलने का मौक़ा अक्सर ही मिलता रहता है। यह बात अलग है कि फ़िल्म से जुड़ी शख़्सियतों ने मुझे उतना प्रभावित कभी नहीं किया जितना कला, खेल या साहित्य से जुड़े लोगों ने किया। इसके बावजूद दिलीप कुमार, अमरीश पुरी, ए.के. हंगल, शबाना आज़मी, मिथुन चक्रवर्ती, सुशांत सिंह से मिलना और उनसे बातचीत करना एक नए अनुभव से गुज़रने जैसा था। दिव्या दत्ता को लेकर भी मेरे अंदर जो तस्वीर उभर रही थी वह कुछ-कुछ इसी तरह की थी। इसलिए दिव्या दत्ता से मुलाक़ात को लेकर एक उत्सुकता थी। सुकृति ने तय समय पर गाड़ी भी भिजवा दी थी लेकिन रास्ते में भीड़भाड़ काफ़ी थी, इसलिए तय समय से क़रीब पंद्रह-बीस मिनट देर से होटल पहुंचा। वहां कार्यक्रम को लेकर किसी तरह की गहमागहमी नहीं थी जो अमूमन फ़िल्मवालों को लेकर रहती है। मुझे कुछ अजीब लगा। रिस्पेशन पर पूछताछ की तो पता चला कि यहां कोई कार्यक्रम नहीं है। होटल के बैंक्वेट हाल में काम चल रहा था। एक पल को सोचा कहीं मैं ग़लत जगह तो नहीं आ गया लेकिन सुकृति ने जो मेल किया था उसमें तो यहां का ज़िक्र ही था। इसलिए बिना देर किए सुकृति को फ़ोन लगाया। तभी वे लॉबी में ही दिख गर्इं। तब तक उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी। वे अपनी दो और सहयोगियों के साथ वहां मौजूद थीं। उन्होंने पहले मेरी मुलाक़ात उनसे कराई और फिर बताया कि कार्यक्रम में थोड़ा विलंब है। यों भी फिÞल्मवालों के कार्यक्रम देर से ही शुरू होते हैं इसलिए मैं आशवस्त था कि मुझे देर नहीं हुई है और सुकृति ने मेरी बात की तसदीक़ भी कर दी। उन्होंने बताया कि दिव्या थोड़ी देर से पहुंची हैं। वे कार्यक्रम के सिलसिले में अपने गृह राज्य पंजाब में थीं। उन्हें दूसरे दिन सुबह की फ्Þलाइट से लखनऊ जाना है इसलिए एअरपोर्ट के पास के होटल में उनसे मिलने का कार्यक्रम रखा गया। लेकिन हैरत इस बात को लेकर हुई कि उनसे मिलने वालों में कुल जमा चार लोग ही थे। फ़िल्मों पर कभी-कभार लिखने की वजह से उनमें से एक-दो लोगों से मेरी मुलाक़ात थी। लेकिन हैरत इस बत पर मुझे थी कि अमूमन फिÞल्मवाले अपनी छवि को लेकर बेतरह संवेदनशील होते हैं और उनके इर्दगिर्द फ़ोटोग्राफ़रों की एक बड़ी भीड़ होती है। कैमरों के फ्Þलशलाइटों की चमक की उन्हें आदत होती है लेकिन यहां तो कहीं कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। थोड़ी देर बाद ही मैक्स चैनल की भारती काबरे आर्इं और उन्होंने दुआ-सलाम के बाद बताया कि पांच-दस मिनट के बाद दिव्या हमारे साथ होंगीं। भारती अख़बारों से जुड़ी बातों की जानकारी लेती रहीं। उनसे बातचीत हो रही थी कि अचानक दिव्या आ खड़ी हुईं। बिना किसी तामझाम के। न बाउंसर, न बाडीगार्ड न कैमरों की चमक और न ही भीड़ से उन्हें दूर रखने की कोशिश करते लोग। अपने पास अचानक उन्हें देख कर लगा कि अपने घर की कोई लड़की है। उन्हें देखने के बाद लगा ही नहीं कि उनका ताल्लुक़ फ़िल्मों से भी हो सकता है। पूरी आस्तीन की छींटेदार क़मीज़ और जिंस की पैंट। क़मीज़ का रंग भी सोबर, हल्के फ़िरोज़ी रंग पर उजले-उजले छोटे फूल। उन्हें इस तरह अपने पास खड़ा देख कर मैं कह बैठा- ‘आप तो बहुत अपनी-अपनी लगती है, जैसे अपने घर की कोई लड़की’। वे हौले से हंसीं और कहा- ‘हां, मैं तो हूं ही आपके घर की।’
और इस एक जुमले ने ही दिव्या की पूरी शख़्सियत को हमारे सामने रख दिया था। दिव्या फिÞ ल्मों में काम करते हुए भी दूसरों से अलग थीं। ठीक है कि वे फ़िल्मों में मुख्य किरदार नहीं निभाती थीं लेकिन अपने किरदारों के साथ वे जीतीं थीं इसलिए उन्होंने जितनी भी फिÞल्में कीं, उनमें अलग-अलग किरदारों में नज़र आर्इं। ‘वीरज़ारा’ ‘वेलकम टू सजन्नपुर’ ‘दिल्ली-6’ ‘सिलसिले’ ‘बाग़बां’ ‘अग्निपंख’ ‘आजा नच ले’ ‘उमराव जान’ ‘यू मी और हम’ सहित दर्जनों फ़िल्म में काम करने वाली दिव्या को ‘वीरज़ारा’ की शन्नो ने पहचान दिलाई तो ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की विंध्या ने उसे विस्तार दिया और ‘दिल्ली-6’ की जलेबी ने उनके अभिनय को नई ऊंचाई पर ला खड़ा किया। ज़ाहिर है कि हर फ़िल्म में अलग-अलग किरदारों में दिखाई देने वाली दिव्या अपने किरदारों को पूरी तरह जीने की कोशिश करती हैं। ‘चेहरे’ और ‘ज़िला ग़ाज़ियाबाद’ इस विस्तार को आगे ले जाता है। ‘दिल्ली-6’ और ‘वीरज़ारा’ के लिए तो उन्हें सहायक भूमिका के लिए पुरस्कार भी मिला है लेकिन देश में पुरस्कारों की जो राजनीति और गणित है दिव्या के अभिनय को उस पैमाने से नहीं देखा जा सकता क्योंकि दिव्या ने अपने किरदारों को जो ऊंचाई दी है वह इन पुरस्कारों से कहीं आगे की चीज़ है। इसलिए उस शाम उन्हें अपने बीच इस तरह पाना एक हैरत से भर गया।
वहीं खड़े-खड़े औपचारिक बातचीत होती है। फिर उन्हें बताता हूं कि आपसे मुलाक़ात के लिए आ रहा था तो बेटी का फ़ोन आया था। उसे जब बताया कि आपसे मिलने आ रहा हूं तो उसने छुटते ही कहा था ‘आप वीरज़ारा की शन्नो से मिलने जा रहे हैं’। दिव्या यह सुन कर हंसीं और कहा-मुझे शन्नो के तौर पर ही ज्Þयादर लोग जानते हैं। आगे की बात होती इससे पहले ही मैक्स के कार्यकारी उपाध्यक्ष नीरज व्यास ने कहा कि क्यों नहीं हमलोग खाने की मेज़ पर ही बातचीत करें। हम सभी रेस्तरां की तरफ बढ़ गए। वहां टेबल पहले से ही रिजर्व था। हम कुल जमा सात लोग थे। गोलाकार टेबल पर हम बैठे ही थे कि मैक्स के वरिष्ठ उपाध्यक्ष गौरव सेठ भी आ गए। खाने वैगरह के बारे में भारती ने हम लोगों से पूछा तो मैंने उन्हें अपनी पसंद से चीजें मंगवाने की छूट दे दी। भारती ने इतना ज़रूर पूछा कि हम वेजेटेरियन खाना पसंद करेंगे या नानवेजेटेरियन। भारती को हमने बताया कि नानवेजेटेरियन खाना ही पसंद करेंगे। भारती ने यही सवाल दिव्या से भी किया और किसी बच्चे की तरह उन्होंने कहा कि आज तो वे भी नानवेज ही खाएंगी।
आर्डर वग़ैरह देने की ज़िम्मेदारी भारती निभा रहीं थीं। इसलिए हम दिव्या के साथ बातचीत में मशग़ूल हो गए। बातचीत के केंद्र में दिव्या और फ़िल्में ही थीं। दिव्या को फ़िल्मों में अदाकारी करते हुए लंबा अरसा बीत गया है। कई यादगार फ़िल्में उन्होंने की। फ़िल्मों में काम करते हुए कई खट्टे-मीठे अनुभव उन्हें हुए। अपने किरदारों को उन्होंने बेहतरीन ढंग से जीने की कोशिश की। वे बेलौस ढंग से बात करती हैं। बिना किसी पसोपेश के कहती हैं, मेरी वजह से फिल्में हिट नहीं होतीं। फ़िल्में कामयाब होती हैं तो बस उसका श्रेय चार-पांच अदाकारों को ही जाता है। सच कहूं तो नायिकाओं की वजह से भी फ़िल्में हिट नहीं होतीं। कामयाबी की गारंटी हीरो ही होता है। एक कामयाब हीरो के साथ किसी भी नई लड़की को लेकर फिÞल्म बना लें, वह कामयाब हो सकती है लेकिन नायिकाओं के साथ ऐसी बात नहीं है। जब नायिकाएं कामयाबी की गारंटी नहीं होतीं तो फिर हम किसी फ़िल्म को कामयाब तो कर ही नहीं सकते। तसल्ली इस बात की होती है कि हमें जो काम करने को मिला उसे बेहतर ढंग से निभा दिया। छोटे परदे पर अपने नए कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रा शाट्स चैलेंज’ को लेकर उत्साहित दिखीं दिव्या। इस कार्यक्रम में फ़िल्मों से जुड़े सवालों का जवाब प्रतियोगियों को देना होता है। वे बताती हैं- यक़ीन करें ढेरों ऐसी बातें इस दौरान मुझे पता चलीं जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी, जबकि मेरा ताल्लुकÞ फ़िल्मों से रहा है। मुझे बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला है इस दौरान। दरअसल यह सीखना ही जीवन में लगा रहता है।
इस बीच वेटर पहले कोल्ड ड्रिंक्स और जूस रख गए थे। थोड़ी देर बाद ही कई तरह के कबाब हमारे सामने थे। शामी कबाब, टंगरी कबाब, चिकन टिक्का, मटन सीख़ कबाब और झींगा का कबाब वेटर हमारे प्लेट में एक-एक कर डाल गए। दिव्या के साथ बातें भी जारी थीं और कबाबों का मज़ा भी हम ले रहे थे। कबाब जितने लज़ीज़ थे दिव्या की बातें उतनी ही दिलचस्प। दिव्या फ़िल्मों में निभाए अपने किरदारों से बेतरह संतुष्ट दिखीं। एक कलाकार के तौर पर उन्होंने अच्छे किरदारों में बेहतरीन अभिनय किया और उनके चेहरे पर संतोष की इबारत साफ़ पढ़ी जा सकती थी। अच्छी बात यह है कि उन्होंने एक जैसे किरदार दूसरी फ़िल्मों में नहीं निभाए। वे बताती हैं मुझे आॅफ़र तो मिले लेकिन मैंने मना कर दिया। ‘वीरज़ारा’ और ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ के किरदारों को वे बेहतरीन मानती हैं। भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर बनाई गई फ़िल्म ‘वीरज़ारा’ में शन्नो को किरदार को वे अपने दिल के बहुत पास मानती हैं। दिव्या कहती हैं इसकी एक वजह तो यह भी हो सकती है कि हम जिस इलाक़े से आते हैं वहां लोगों ने बंटवारे का दर्द देखा है। छुटपन से ही बंटवारे की कहानी सुनती रहती थी इसलिए यह किरदार मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा-सा बन गया। स्कूल और कॉलेज के दिनों में दिव्या ने नाटकों में भी काम किया। वे साफ़ कहती हैं लोग यह समझते हैं कि मैंने एनएसडी से अभिनय की तालीम हासिल की है लेकिन ऐसा नहीं है। स्टेज से मेरा रिश्ता कॉलेज औक स्कूल के दिनों में रहा है और शुरुआती दौर में मैंने जो अभिनय किया वह फ़िल्मों में काम आया। दिव्या साफ़गोई से अपनी बातें बता रहीं थीं और कबाब का लुत्फ़ भी ले रहीं थीं। कबाबों के बीच ही दिव्या ने कहा कि फिल्मों में वे इसलिए नहीं आर्इं हैं कि एक तरह के किरदार निभाती रहीं बल्कि वे इसलिए आर्इं हैं कि हर बार कुछ नया और अलग करें। वे कहती हैं ‘ फ़िल्मों में मैं आई ही इसलिए हूं कि आफबीट फ़िल्मों में काम करूं और इस मामले में थोड़ी ख़ुशक़िस्मत भी रहीं हूं कि मुझे इस तरह की भूमिका मिली’। दिव्या की फ़िल्में इस बात की तसदीक़ भी करती हैं। हर फ़िल्में में अलग किरदार और हर किरदार में ख़ुद को ढाल लेना दिव्या के अभिनय की ख़ूबी कही जाएगी। इस बीच सिनेमा से जुड़ी दूसरी बातें होती रहीं। फ़िल्मों के वर्तमान ट्रेंड से लेकर कॉमेडी के नाम पर अशलीलता परोसे जाने पर चर्चा हुई। अच्छी और ख़राब फ़िल्मों का ज़िक्र भी हुआ। हम बिना किसी ख़लल के आराम से बातें कर रहे थे। दिव्या को बतौर अभिनेत्री उस रेस्तरां में किसी ने नहीं पहचाना था इसलिए न तो आॅटोग्रॉफ लेने वालों की भीड़ लगी और न ही उनके साथ फोटो खिंचवाने की चाहत रखने वाले उनके पास आए। एक आम सी दिखने वाली लड़की ही लोगों ने समझा होगा उन्हें और यह हमारे लिए भी तसल्ली भरी बात रही। हम आराम से खाते भी रहे और बातें भी करते रहे।
कबाबों का दौर ख़त्म हो चुका था। वेटरों ने खाना परोसना शुरू किया। कुछ दाल, कुछ सब्ज़ी और रोटी। कबाबों का ज़ायक़ा अब भी बना हुआ था। दाल, रोटी और सब्ज़ी के अलावा मटन का बना हुआ कोई व्यंजन बैरे ने परोसा। इस बीच मैंने दिव्या से पूछा था कि आपको किस तरह की फ़िल्में पसंद हैं तो दिव्या का जवाब था-मुझे बसु चटर्जी की फ़िल्में बहुत पंसद आती हैं और आज भी उन्हें देखती हूं। बसु चटर्जी की फ़िल्मों का जवाब नहीं, हल्की-फुलकी लेकिन जीवन से जुड़ी हुई। फिर गुलज़ार साहब की फिÞल्में हैं। ‘मौसम’ मेरी पसंदीदा फिÞल्मों में से है। वे ख़ामोश होती ही हैं कि मैं अगला सवाल करता हूं- और किन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने आपको प्रभावित किया। दिव्या मुस्कुराती हैं फिर जवाब देती हैं- ‘अभिनेत्रियों में मधुबाला मुझे बेहद पसंद हैं। इसलिए नहीं कि वे ख़ूबसूरत थीं। ख़ूबसूरत तो थी हीं वे लेकिन मुझे उनका अभिनय काफ़ी पसंद था। उनका चुलबुलापन, उनकी अदाएं मुझे बेतरह पसंद हैं। अभिनेताओं में दिलीप कुमार और बाद की पीढ़ी में ऋषि कपूर’। फ़िल्मों के निर्देशन का विचार कभी आया, ‘नहीं अभी मैं सारा ध्यान अभिनय पर ही दे रही हूं। निर्देशन का अभी तक सोचा नहीं है’। लेकिन अगर कभी फ़िल्म निर्देशन का ख़याल आया तो किस तरह की फ़िल्में बनानी पसंद करेंगे। दिव्या हौले से मुस्कुरार्इं और कहा- बसु दा जैसी फ़िल्में बनाते थे।
खाना खाते हुए देश-दुनिया की बातें भी होती रहीं। धारावाहिकों से लेकर अण्णा हज़ारे बाचतीच के केंद्र में रहे। इस दौरान दिव्या ने मुझसे पूछा कि आप कहां के रहने वाले हो, मैं उन्हें बताता हूं कि मेरा ताल्लुक़ बिहार से है, घर देहरादून में बनाया है और ग़मे-रोज़गार की वजह से दश्त की सैयाही ख़ूब की है। गुवाहाटी, कोलकाता, से होते हुए दिल्ली में डेरा जमा रखा है, अब आप तय करें कि मैं कहां का रहने वाला हूं, अपने लिए तो बस इतना ही कह सकता हूं कि रहने को घर नहीं हैं, सारा जहां हमारा।
खाना ख़त्म हो चुका था। इस बीच बेटी का फ़ोन आता है। उसे पूछा था दिव्या दत्ता से मुलाक़ात हो गई। मैंने उसे जवाब में कहा कि उनके साथ ही खाना खा रहा हूं तो उसे भी थोड़ी हैरत हुई। मैंने पूछा कि बात करोगी तो वह तैयार हो गई। दिव्या की तरफ़ फ़ोन बढ़ाते हुए मैंने कहा कि मेरी बेटी है आपसे बात करना चाहती है। दिव्या ने बेटी का नाम पूछा, ‘राष्ट्रीय सुंबुल’ मैंने बताया। दिव्या थोड़ी-सी चौंकीं, कहा- बहुत यूनिक नेम है, अपने आप में अलग। मैंने हामी भरी, हां कुछ तो अलग है। तब तक वे फ़ोने ले चुकी थीं। उन्होंने बेटी से भी यह बात दोहराई और कहा- तुम्हारा नाम बहुत ख़ूबसूरत है। थोड़ी देर तक दोनों बात करती रहीं। बातचीत ख़त्म हुई तो फ़ोन उन्होंने मेरी तरफ़ बढ़ाया। बेटी को संतोष हुआ। उसने कहा कि मुझे तो यक़ीन ही नहीं आ रहा है कि मैंने दिव्या दत्ता से बात की है। फ़ोन रख कर दिव्या से कहता हूं कि बेटी के लिए एक आॅटोग्रॉफ़ तो दे दें। वे आॅटोग्रॉफÞ देती हैं। मैं उनसे मेल आईडी और नंबर का आग्रह करता हूं। उसी काग़ज़ पर वे नंबर और अईडी लिख देती हैं। खाना हो चुका था। उन्हें भिंसारे लखनऊ के लिए विमान पकड़नी थी। वे विदा लेती हैं लेकिन तभी उनसे पूछता हूं कि और किन चीज़ों में उनकी रुचि है। वे जवाब देती हैं लेखन में, मैं कई जगह कॉलम लिखती हूं। उनका यह जवाब चौंकाता है। मन में जिज्ञासा होती है और उसे उनके सामने रखता हूं, किस तरह का लेखन। सोचा तो यह था कि वे जवबा देंगी फ़िल्मों से जुड़े अनुभवों पर लिखती हूं। लेकिन उनका जवाब होता है जो मुझे अंदर तक झकझोरता है वह चाहे अण्णा हज़ारे का आंदोलन हो या फिर आम आदमी की पीड़ा। मुझे जो चीज़ अंदर कहीं छूती है उसे मैं अपने लेखन का विषय बनाती हूं। वह चलने को तैयार थीं, कहती हैं सुबह सवेरे उठना है, आज्ञा दें। उनके चलने से पहले मैं यह ज़रूर जोड़ता हूं आपकी कुछ चीज़ें पढ़ना चाहूंगा संभव हो तो मेल से अपना कुछ लिखा भेजें। वे हामी भरती हैं और फिर अपने कमरे की तरफ़ बढ़ जाती हैं।
उनके जाने के बाद हम लोगों के अलावा मैक्स के अधिकारी भारती, नीरज और गौरव सेठ बैठ कर गपें मारते हैं। तब तक बैरे ने मेरी पसंदीदा चीज़ क़ुलफ़ी मेरे प्लेट में ला रखी। मैंने बैरे से कहा कि एक और डाल दें। फिर एक रस्सगुल्ला मैंने लिया। मीठा खाने के बाद बैरा पान रख गया। काफ़ी अरसे बाद पान खाने की ख़्वाहिश हुई। एक पान का बीड़ा उठा कर मुंह में डाला और अपने मेज़बानों का शुक्रिया अदा कर कहा कि अब हमें भी चलना चाहिए।
रात थोड़ी और गहरा गई थी। हवाई अड्डा नज़दीक होने की वजह से विमानों का उतरना और उड़ान भरना जारी था। ड्राइवर इसी बीच गाड़ी ले आया था। मैं घर लौट रहा था। लौटते वक्Þत भी दिव्या की बातें याद आरही थीं। उनकी सादगी, उनका बेलौस लहजा और उनकी साफ़गोई अच्छी लगी थी। दिव्या को अपनी सीमाओं का पता है और उनसे बेहतर इसे कोई और समझ भी नहीं सकता लेकिन फिर भी किसी तरह का बड़बोलापन नहीं। वे कहने से ज्Þयादा करने पर यक़ीन रखती हैं। दिव्या दत्ता से मिल कर, उनसे बातें कर लगा कि उनके अंदर कहीं एक बेहतर इंसान बैठा है जो उन्हें अच्छा करने के लिए प्रेरित करता रहता है। वह जो बेहतर इंसान है, उन्हें राह भी दिखाता है और अच्छे व बुरे का सलीक़ा भी सिखाता है। शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि दिव्या का रिश्ता सिर्फÞ फ़िल्मों से नहीं है, उनका रिश्ता शब्दों के साथ भी है। शब्द आदमी को आदमी होने की तमीज़ भी सिखाता है और रोटी खाने का सलीक़ा भी। शब्द आदमी को आदमी बनने की तमीज़ सिखाते हैं। दिव्या दत्ता शब्दों को साधती हैं इसलिए वे दूसरे फ़िल्मवालों से अलग हैं, जुदा हैं।
(लेखक नई दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार है . उनसे fazalmallick@gmail.com के जरिये संपर्क किया जा सकता है .)
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