Saturday, June 26, 2010

जसवंत सिंह पर विशेष लेख - कलम की सूली पर क्यों चढ़ें -डॉ. सुभाष राय
(शनिवार /26 जून 2010 / डॉ. सुभाष राय /आगरा )

जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी हो गयी है। पर उन्हें निकाला ही क्यों गया? क्या वे कारण अब समाप्त हो गये हैं, जिनकी वजह से उन्हें भाजपा के कूचे से बेआबरू होकर बाहर जाना पड़ा था? क्या अब इस पार्टी को उन सिद्धांतों और मूल्यों की परवाह नहीं रही, जिनके उल्लंघन की सजा जसवंत जैसे नेता को सुनायी गयी थी? इन सब सवालों का पार्टी कोई उत्तर देने नहीं जा रही, न ही कोई उससे कोई पूछने जा रहा है परंतु कोई भी सचेष्ट व्यक्ति इस पर विचार करे तो एक बात समझ में आती है कि राजनीति में उन खास तरह के विचारों को राष्ट्रहित, जनहित और चेतनास्वातंत्र्य के मूल्यों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है, जो राजनीतिकसंगठनों की संकीर्ण और कठोर दीवार को मजबूत बनाये रखने में सहायक होते हैं।

अब राजनीति ने अपना चेहरा बदल लिया है। सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा। ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, जनपक्षधरता और राष्ट्रभक्ति अब राजनीति के मूल्य नहीं रहे। अगर आप को राजनीति करनी है तो यह बात ठीक से समझ लेनी होगी कि दलगत हित में अनेक अवसरों पर आप सहर्ष युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र की भूमिका का निर्वाह करेंगे। कभी अर्धसत्य बोलना पार्टी के लिए फायदेमंद होगा, तो आप को नरो वा कुंजरो की शैली अख्तियार करनी होगी, भले ही आप सच जानते हों। कई बार ऐसे मौके भी आयेंगे, जब आप को झूठ बोलना होगा क्योंकि उस समय वही पार्टी का भला करने वाला होगा। इतना ही नहीं उन हालातों से भी आप रूबरू होंगे, जब आंखें खुली होते हुए भी आप को कुछ नहीं दिखायी पड़ने का नाटक करना होगा। अगर आप ऐसे वीर-बांकुरे हैं, ऐसे उस्ताद हैं, ऐसे छैल-छबीले हैं, तो आप राजनीति के लिए एक निपुण और योग्य नायक हैं और ऐसे में बेशक सफलता आप के चरण चूमेगी।

अगर आप को राजनेता बनना है तो सच से तो बिल्कुल ही परहेज करना पड़ेगा। राजनीति में सच मधुमेह के रोगी को गुड़ खिलाने जैसा है। वह मीठा खायेगा तो मरेगा। इसी तरह नेता अगर सच बोलने की राह पर चलता है तो उसकी राजनीतिक मृत्यु निश्चित है। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का जमाना गया। इस झूठ की दुनिया में अब किसी नेहरू, गांधी, लोहिया या जेपी के जिंदा बचे रहने की कोई संभावना नहीं है। फिर कोई राजनेता लेखक बन जाय, यह तो असहनीय है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कलम उठाते ही व्यक्ति के सच्चे बन जाने की संभावना बढ़ जाती है। सच ही किसी को भी बड़ा लेखक बनाता है। जीवन के सच का बयान करना बहुत ही कठिन काम है। सच अक्सर कड़वा होता है और कड़वी बात किसे पसंद आयेगी।

लेखक कड़वी बात इसलिए कहता है कि उसका असर तुरंत होता है। जैसे कड़वी दवा तुरंत अपना काम करती है, वैसे ही कड़वी बात प्रभावित होने वालों के दिलों में तत्काल हलचल पैदा कर देती है। इसी हलचल से बदलाव की शुरुआत होती है। लेखक नेता नहीं होता, इसलिए उसे अपने सच की संभावित प्रतिक्रिया की कोई चिंता नहीं होती। वह उस प्रतिक्रिया को और तेज करने की कोशिश करता है। दुष्यंत ने कहा है कि तबियत से एक पत्थर उछाल कर देखो, आसमान में सूराख क्यों नहीं हो सकता। हर लेखक या कवि इसी इरादे से लिखता है। वह आसमान में सूराख करना चाहता है, कुछ तोड़ना चाहता है, बदलना चाहता है। पर राजनीति न कुछ तोड़ना चाहती है, न बदलना चाहती है। वह तो उन रुढ़ियों, विश्वासों और नकारात्मक मूल्यों को और मजबूत बनाये रखना चाहती है, जो उसे ताकत दे सकें। कोई सांप्रदायिक चेतना को हवा देता है, कोई जातीय स्वाभिमान को जगाये रखने का काम करता है और कोई क्षेत्रीय, भाषायी उन्माद को उग्र होते देखना चाहता है।

यह काम प्रगति और परिवर्तनकामी चेतना से संपन्न नहीं होते, यह बात तय है, इसीलिए राजनेता को प्रगति, परिवर्तन और आधुनिकता का केवल छद्म ओढ़ना होता है, सच नहीं। पर जसवंत सिंह यह सब जानते नहीं थे या शायद इतना सोचा नहीं था। उन्होंने साधारण तर्कबुद्धि से काम लिया। जब लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना की तारीफ कर सकते हैं और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता तो वे भी अगर थोड़ा हाथ आजमा लेंगे तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा। पर राजनीति का यही कमाल है, वही राजनीतिक अपराध करके आडवाणी बच निकले मगर जसवंत फंस गये। चलिये अब आशा की जानी चाहिए कि वे दुबारा कलम की सूली को आजमाने की कोशिश नहीं करेंगे।


(लेखक जाने -माने पत्रकार और लेखक हैं . आप उनसें ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा पर संपर्क कर सकते हैं . उनका मोबाइल नंबर ---०९९२७५००५४१ है . आप उनके लेख ' बात -बेबात ' ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं )

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