(रविवार/11 जुलाई 2010 / सलीम अख्तर सिद्दीक़ी/मेरठ )
आज 11 जुलाई को सुप्रसिद्ध पत्रकार उदयन शर्मा का जन्म दिन है। आज के दिन पत्रकारिता के बड़े-बड़े नाम समकालीन पत्रकारिता पर चर्चा करने के लिए दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के स्पीकर हॉल में जुटेंगे। सब पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताएंगे। साथ में यह भी कहा जाएगा कि आज के दौर में बाजार को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। पिछले सात साल से इस प्रोग्राम में मैं लगातार यही बातें सुनता आ रहा हूं। लेकिन हालात बद से बदतर होते जा रहे है। इस सबके बीच उस उदयन शर्मा को याद किया जाएगा, जो पत्रकारिता में आ रही गिरावट से चिंतित होते थे। आज यदि उदयन शर्मा जीवित होते तो यकीनन बहुत दुखी होते। पत्रकारिता का स्तर इतना गिर गया है कि कभी-कभी तो खीज पैदा होती है। टीआरपी और प्रसार की होड़ में आम आदमी को हाशिए पर डाल दिया गया है। टीवी चैनल हों या समाचार-पत्र सभी ने जैसे आम आदमी से मुंह मोड़ लिया है। जब शिद्दत की गर्मी पड़ती है तो मीडिया को चिलचिलाती धूप में जाती हुई खूबसूरत लड़कियां नजर आती हैं। उन्हीं की तस्वीरें दिखाकर बताया जाता है कि गर्मी बहुत पड़ रही है। मीडिया को साठ साल का बूढ़ा गर्मी में रिक्श खींचता कभी नजर नहीं आता है। लगभग हर मौसम में यही होता है। बारिश में अठखेलियां करतीं लड़कियां अखबारों की शोभा बढ़ाती हैं। गरीबों के घरों में तैरते पानी की तरफ कैमरे का रुख कभी नहीं किया जाता है। एक बार मैंने अपने एक पत्रकार मित्र से पूछा था कि आप लोग केवल लड़कियों की तस्वीरें ही क्यों छापते हैं ? पत्रकार मित्र का जवाब बहुत हैरतअंगेज था। उसका कहना था कि हमें आदेश हैं कि केवल ग्लैमर को ही तरजीह दी जाए।
सिर्फ इतना ही नहीं आम आदमी के सरोकार से मीडिया इतना दूर हो चुका है कि कोई आम आदमी गरीबी और कर्ज के चलते अपने पूरे परिवार को मौत की नींद सुलाकर खुद भी मौत को गले लगा ले तो मीडिया के लिए यह एक रुटीन खबर होती है। समाज में इस तरह की घटनाओं के पीछे क्या सामाजिक कारण हैं, इसकी पड़ताल करना वह जरुरी नहीं समझता। इसके विपरीत कोई मॉडल खुदकुशी कर ले तो मीडिया पूरे सप्ताह तक खुदकशी के कारण जानने में लगा देता है। जैसा कि मॉडल विवेका बाबाजी के मामले हुआ। इस देश में हर रोज किसान आत्महत्याएं करते हैं, लेकिन किसानों की आत्महत्या मीडिया में कभी बहस का मुद्दा नहीं बनती। जेसिका लाल, आरुषी और नीतीश कटारा हत्याकांड पर पूरा मीडिया महीनों कम्पेन चलाता है। मीडिया को लगने लगता है कि देश या प्रदेश की कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। हत्यारों का राज हो गया है। कोई भी सुरक्षित नहीं है। हत्यारों को सजा दिलाने में जुट जाता है। लेकिन इस तरह की हत्याएं हर शहर में रोज होती हैं। कभी बहस नहीं होती। कभी मीडिया यह नहीं कहता कि कानून व्यवस्था चौपट हो गयी है। क्या गरीब आदमी की मौत को इसलिए तवज्जों नहीं दी जाती क्योंकि वह ग्लैमरस नहीं है ? उसकी मौत से टीआरपी नहीं बढ़ सकती ?
उदयन शर्मा की यही खासियत भी कि उनके दिल में गरीब आदमी के लिए बहुत दर्द था। गरीबों के दर्द को जानने के लिए वह दूर-दराज के इलाकों में जाने से भी नहीं हिचकिचाते थे। जैसे रिपोर्टिंग उदयन शर्मा कर गए, उस जैसी रिपोर्टिंग करना आज के पत्रकारों के बस में भी नहीं है और अखबार के मालिक और सम्पादक कराना भी नहीं चाहते। आज वही सम्पादक या रिपोर्टर कामयाब और अच्छा है, जो अखबार को ज्यादा से ज्याद मुनाफा करा सके, भले ही उसके लिए विज्ञापन को खबरनुमा बनाकर छापना पड़े। वैसे भी अब चैनल और अखबारों के पास लम्बी-लम्बी रिपोर्ट छापने का न तो वक्त है और ही जगह। विज्ञापनों से समय और जगह नहीं बचे तो बेचार चैनल और अखबार क्या करें। उदयन शर्मा के दिल में गरीबों के लिए कितना दर्द था, इसका उल्लेख कुलदीप नैयर ने अपने एक संस्मरण में किया है। नैयर साहब कहते हैं कि एक बार जब मैं कलकत्ता उदयन से मिलने गया तो उसने मुझसे छूटते ही कहा कि बिहार में हालात बहुत खराब हैं। बिहार में गरीब लोग तो हैं ही शासन भी उन्हें कुचल रहा है। उदयन ने मुझसे कहा कि आप मेरे लिए बिहार जाइए और वहां के हालात को लिखकर मुझे दीजिए। कुलदीप साहब कहते हैं कि मैंने बहाना किया कि अभी तो गर्मी बहुत है, कुछ महीनों बाद वक्त निकाल सकूंगा। इस पर उदयन ने मुझसे कहा कि नैयर साहब लोगों की आवाज उठाने की जरुरत तो इसी वक्त है। बाद में तो लेख ही लिखे जा सकते हैं। लोगों और शासन दोनों को जगाने की अभी जरुरत है।
उदयन शर्मा अपने छोटे-छोटे से सहयोगी का सम्मान करना भी जानते थे। उन्होंने कभी जूनियर या सीनीयर के बीच भेदभाव नहीं किया। उदयन शर्मा अपने साथियों का कितना सम्मान देते थे इसका उदाहरण 'रविवार' के जमाने का है। 'रविवार' में भक्तो दा नाम से पुकारे जाने वाले एक बंगाली बुजूर्ग टेम्पररी चपरासी थे। बीमारी के चलते उनकी मौत हुई तो सभी को दुख हुआ लेकिन सबसे ज्यादा दुखी उदयन शर्मा हुए थे। एक टेम्पररी चपरासी की मौत की खबर को उदयन शर्मा ने तस्वीर के साथ आधे पेज पर 'भक्तो दा नहीं रहे' शीर्षक के साथ छापी थी। खबर भी खुद ही लिखी थी। सिर्फ यही नहीं। कम्पनी के मालिक अवीक सरकार से कहकर भक्तो दा के बेटे की स्थाई नौकरी भी कम्पनी में लगवाई।
आज के दिन उदयन शर्मा को याद करना ही काफी नहीं है। जरुरत इस बात की है कि मीडिया में उदयन शर्मा जैसे लोग आएं और उनकी वह मुहिम जो, उनके इंतकाल के बाद थम गयी थी, आगे बढ़ाएं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आज पत्रकारिता जिस मुकाम पर पहुंच गयी है, वहां उदयन शर्मा वाली पत्रकारिता करना सम्भव है ? आशा की बात यह है कि आज भी ऐसे पत्रकार मौजूद हैं, जो नाउम्मीदी के इस घटाटोप अंधेरे में एक मशाल लेकर चल रहे हैं। बाजार के इशारों पर नाचने वाले पत्रकारों के बारे में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है-
गलत बातों को खामोशी से सुनना, हामी भर देना, बहुत हैं फायदे इसमें, मगर अच्छा नहीं लगता।
मुझे तो दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है, किसी का भी हो, कदमों में सर अच्छा नहीं लगता।

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