Thursday, August 12, 2010




(शुक्रवार/13 अगस्त 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता/नई दिल्ली )

लाईव होने की बजाय पीपली लाईव एक रिकार्डिंग है नत्था जैसे न जाने कितने उन लोगों की जो होते हुए भी नहीं हैं।

छोटी फिल्म में बड़ी समस्याओं को कम किरदारों के ज़रिए दर्शाती पीपली की कहानी।

गरीब किरदारों की जिंदगी में अमीरों का दखल। सरकारी योजनाओं का ज़िक्र, उनका बेमतलब होना और कभी न रूकने वाला उनका दुरूपयोग। पूर्व पीएम शास्त्री जी का केवल लाल बहादुर यानि हैंड पंप में तब्दील हो जाना, वो भी बिना फिटिंग। ढूँढने पर भी बेज़मीन नत्था के लिए डीएम को कोई इंदिरा आवास या जवाहर रोज़गार जैसी सरकारी स्कीम न सूझना। नत्था का नाक में दम करना। यह सब सिर्फ इशारे हैं। और फिल्म समझदार दर्शक के लिए बनी है।

फिल्म में किरदार गरीब ज़रूर हैं पर वो बदमाश नहीं, लुटेरे नहीं, उनके हाथ में बंदूक नहीं। और न ही ऐसा होने की उनकी सोच या कोई मंशा। कहानी में इंसान, इंसान ही बना रहता है, भगवान नहीं। इंसानी ही उसकी भावनाएं और इंसानी ही उसकी प्रतिक्रियाएं। नत्था को मिला हैंड पंप, जो फिट नहीं होगा और बिना बिजली कनेक्शन के टीवी, जो शायद कभी न चले, उसके जीवन के अटपटे और निरर्थक होने का प्रतीक हैं।

नत्था का मरना या न मरना फिल्म में बड़ा सवाल दिखता भले ही हो पर है नहीं।

नत्था कभी मरता नहीं क्योंकि नत्था जैसे लोग यूं भले ही राजनेताओं के मुताबिक मरने के लिए पैदा होते हों, लेकिन वो मर मर के बस जीते रहते हैं। उनका जीना हमारे बीच मरने का प्रतीक है। नत्था जैसे किरदार हमारे बीच पिसे जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं हमसे, जो उन्हें नत्था बनाते हैं। और जिनके यह सब सहने का हमें इल्म भी नहीं। या कहें तो होकर भी नहीं।

प्रेमचंद के 'गोदान' के किरदार 'होरी' को यहां अनुशा रिज़वी की पीपली में भी मौत ही नसीब होती है। मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र पीपली का निवासी होरी महतो फिल्म में भले ही केवल पांच सीन में हो पर उसकी दशा सीने में गड़ सी जाती है।

एक बार के लिए लगता है कि ये पीपली की कहानी नत्था की न होकर होरी जैसे उन किसानों की ज्यादा है जिनके पास फिल्म की तरह ही असल जीवन में भी कोई संवाद नहीं। जिन्हें महंगाई डायन खा जाने के बाद डकार भी नहीं लेती।

संवादहीन किसानों की दुखद और संवेदनहीन राजनेताओं की सुखद दास्तान दिखती है फिल्म। फिल्म में होरी एक ही सीन में बोलता है। पहली और आखिरी बार।

गाना 'महंगाई डायन' सभी ने सराहा है लेकिन फिल्म के अंत होने पर आने वाला गीत 'चोला माटी के राम' अपने आप में फिल्म का सही अंत है। गीत आप के साथ उस टीस की तरह रह जाता है जो फिल्म देखने के बाद शायद दिल में उठे। गीत के बोल की तरह आप भी विश्वास करने लगते हैं कि सब राम भरोसे ही है। राम भरोसे ही है वो तंत्र जहां अंधे कुएं की तरह शॉपिंग मॉल्स को फुटफॉल्स और मीडिया को आईबॉल्स चाहिएं।

नत्था की खोज या उससे जुड़ी उत्सुकता फिल्म 'तेरे बिन लादेन' के 'ओसामा' की याद दिलाती है। संगीत और गीत दोनों कहानी में रचे बसे सुनाई पड़ते हैं। फिल्म में कॉमेडी न होकर कड़वे व्यंग्य खूब हैं। दोनों में फर्क हालांकि बेहद बारीक रखा है। कॉमेडी शब्द उन समस्याओं के प्रति निरादर जैसा होगा जोकि विकराल हैं।

याद दिलाना ज़रूरी नहीं कि हर बार की तरह रघुवीर यादव ने उम्मीद के मुताबिक छाप छोड़ी है। गायन और अदाकारी दोनों में। लेकिन नत्था बने ओंकार दास माणिकपुरी चुप रहकर वो दर्शाने में कामयाब होते हैं जोकि संवाद के ज़रिए कह पाना शायद ही मुमकिन था। खाट पर लेटी अपढ़ बीमार मां के रोल में फारूक जाफर ने अदाकारी कुछ यूं दिखाई है जो सास के असल किरदार के बेहद करीब है। दो देहाती औरतों यानि सास बहु के ज़रिए यह भी देखने को मिलता है कि कुछ नहीं बदला है। न तो बेटे के मन में मां के प्रति लगाव, ज़मीन के बदले मां के इलाज को प्राथमिकता। और न ही सास बहु का एक दूसरे को सालों से दिन रात कोसते रहने का सिलसिला।

अगर बुधिया यानि रघुवीर यादव एक चालाक बेवकूफ है तो नत्था भी बेहद बेवकूफी से चालाकी निभा जाता है। माहौल देसी, किरदार देसी, देसी लोगों की शहरी न बन पाने और शहरी लोगों के उन्हें देसी बनाए रखने का नाम भी है पीपली लाईव।

तो देखें यह फिल्म जोकि शहरी आंखों के लिए सुखद नहीं है, दिल और दिमाग दोनों पर ज़ोर डालती है, हमारी फितरतों पर चुटकी लेती है, खुद पर हंसने का मौका देती है, जिन किनारों से बच गुज़रने की कोशिश करते हैं उन्हें ही सामने ला पटकती है।

अगर सोनम कपूर की 'आईशा' 2010 की फिल्म रही तो पीपली लाईव कोई पचास साल पुरानी तस्वीर नहीं दिखाती। बल्कि यह भी 2010 में बसी वैसी ही एक कहानी कहती है जो दिल को उसी सहजता से छूती है। फिल्म दिखाती है कि किस तरह इसमें बसे किरदारों का जीवन गोल घेरे में घूम कर रह जाता है। जिन समस्याओं से कहानी की शुरुआत होती है लगभग वही तकलीफें किरदारों के नसीब में अंत तक चिपकी रहती हैं और यह अहसास होता है कि इन समस्याओं का इन किरदारों से वो मज़बूत जोड़ है जो टूटेगा नहीं।

ज़िक्र ज़रूरी है कि फिल्म में नत्था, बुधिया, अम्मा और होरी तो हैं ही, पर नेताओं के लिए निर्मित दो मशहूर टीवी पत्रकारों का अक्स भी नज़र आता है। फिल्म में इनकी सिर्फ़ टांग ही नहीं बल्कि इन्हें ही पूरी तरह खींच लिया गया है। मीडिया पर चोट भरपूर है!

(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)

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