
सौरभ की समीक्षा
फिल्म समीक्षा -- लफंगे परिंदे
(शुक्रवार /20 अगस्त 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
कोई फिल्म अगर दूसरे हाफ से शुरू होती सी लगे तो सिनेमा हॉल में लेट पहुंचने का मलाल चला जाता है। इस बार नतीजा पहले।
कहानी से खिलवाड़, किरदारों के नाम पर मज़ाक, बेअसर फिल्म की मिसाल और दर्शकों साथ धोखा है लफंगे परिंदे। फिल्म की भाषा कलाकारों से, कहानी फिल्म से और दर्शक मन से इस फिल्म से जुदा नज़र आते हैं।
जितना कन्फ्यूजन फिल्म के हर पहलू में नज़र आता है उसका जिम्मेदार केवल निर्देशक को ठहराना सही होगा। नील नितिन मुकेश सड़कछाप बॉक्सर नहीं लगता, दीपिका को स्केट्स पहनाकर डांसर तो बनाया पर डांस करने का पूरा मौका नहीं दिया जाता, विलेन बनाया पियूष मिश्रा को, जो न जाने किस युग में जी रहा है। नेगेटिव काम के अलावा बाकी सब करते हुए नज़र आता है। कन्फ्यूजन नाम कि डायन इस फिल्म को खा गयी। कहानी की याददाश्त फिल्म में खो चुकी है। किसी एक दिशा में आगे बढ़े इससे पहले ही कहानी को ऐसा धक्का लग जाता है कि कहानी खुद भूल जाती है कि उसे किस ओर जाना है।
मुझे भी दिमाग पर बेहद ज़ोर देने पर याद नहीं आ रहा कि कहानी थी क्या फिल्म की।
बात दीपिका, उनके अभिनय और फिल्म में रोल निभाने की। कुल मिलाकर अगर देखें तो एक दीपिका ही फिल्म में कुछ प्रयास करती नज़र आईं। फिल्म में एक हादसे में अपनी आंखें खो चुकी लड़की के रोल को अपनाना और उसे निभाना दोनों ही दीपिका के लिए चुनौतीपूर्ण रहे होंगे। मगर ऐसी चुनौतियां केवल हीरोईन निभाए इससे क्या होता है। फिल्म के बाकी पक्ष शुन्य होने की वजह से फिल्म ही दर्शकों के लिए चुनौती नज़र आती है।
गाना बेशक एक अच्छा है फिल्म में। नैन परिंदे।
नील नितिन मुकेश फिल्म में मानो जादुई शाक्तियों से भरे हैं। जादू ही है जो हर बार उनके एक मुक्के से विरोधी बॉक्सर चित्त हो जाता है, जादू ही है जो वो दीपिका की आंखों की रोशनी खोने पर उसे ऑल्टरनेटिव ट्रेनिंग देते हैं जैसे उन्होंने नेत्रहीनता का इलाज ढूंढ लिया हो। और वो केवल जादू ही हो सकता है कि वो इतनी जल्दी बॉक्सर से स्केटिंग वाले डांसर में तब्दील हो दीपिका के साथ एक मशहूर रिएलिटी शो जीत जाते हैं। कितना फिल्मी लगता है सब।
फिल्म समाज के उस वर्ग की कहानी दिखाते दिखाते रह जाती है जो हमारे रिएलिटी टीवी के प्रोग्रामों को वाकई रीयल मान बैठे हैं।
रात नींद पूरी न हुई हो या दिन की थकान हो और फिल्म के बीच में झपकी आ जाए तो भी आपका ज्यादा नुकसान नहीं होगा। जहां से मन में आए वहां से फिल्म देखें, फिल्म छूटने का अहसास नहीं जगाती लफंगे परिंदे। यशराज फिल्म्स ने एक और बार याद दिलाने की सफल कोशिश की है कि हाल ही में बैंकों ने अपनी फिक्सड डिपॉसिट की दरें बढ़ा दी हैं। पैसों का उपयोग वहां भी किया जा सकता है।
अगर प्रोमो आपको रोचक लगे हों तो मैं आपको यहां स्पष्ट कर दूं कि फिल्म की कहानी में कोई रहस्य या रोचक पक्ष नहीं है। फिल्म से कोई उम्मीद न भी लगाकर जाएं तो भी वह उतना ही निराश करती है।
एक ही थाली में अगर आप सभी आईटम खाना चाहें तो थाली की जो तस्वीर बनती है लगभग वही हाल फिल्म का है। आखिर दर्शक उस घड़ी को न कोसे तो और क्या करे जिसमें उसने इस फिल्म का टिकट लिया।
अब दूसरा हॉफ ही फिल्म है तो कोई क्या करे, पैसे तो पूरी फिल्म के दिए हैं। ऐसे में बीच में किसी को फोन कर लें, कोई पुराना मैसेज वाला चुटकुला पढ़ लें, मन बहलाने के लिए।
परिंदों को यूं ही बदनाम किया। इस खराब फिल्म का नाम कुछ और रख लेते।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)
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