
फ़िल्म समीक्षा- aisha - सौरभ कुमार गुप्ता
(शुक्रवार /06 अगस्त 2010 / सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
2010 में बसी फिल्म। कहानी 19वीं सदी के सरल उपन्यास 'EMMA' की, करीब 200 साल पुरानी। कम कलाकार, ज्यादा बातें, ज्यादा संवादों में छिपी कॉमेडी, एक होने, अलग होने और अलग न रह पाकर फिर एक होने की दास्तान। और फैशन।
कहानी, कलाकार, गीत संगीत और फिल्म से जुड़े हर पहलू के जिक्र की बजाय बात इस फिल्म में कलाकारों के कपड़ों की, स्टाईल की, फैशन की। फिल्म में हीरो या हीरोईन नहीं बल्कि सबसे ज्यादा रोल अगर किसी का है तो वो है कपड़ों का, फैशन का। फैशन ने फिल्म में रोल इतने बेहतरीन ढंग से निभाया है कि वो कहानी की अत्यंत सरलता को भी ढक लेता है, उसमें दिलचस्पी बनाए रखता है। आप उम्मीद नहीं बांधते कि कहानी में एक कोई ऐसी चीज़ होगी जो तस्वीर बदल के रख दे, फिर भी फिल्म पसंद करते हैं। यानि मज़ेदार मॉडर्न युवा किरदार। युवा ही उनकी समस्याएं। सामाजिक जीवन की वो तस्वीर जिसमें गरीबी नहीं, तकलीफ नहीं, कुछ कर गुज़रने का जज़्बा नहीं, रोज़मर्रा के निजी संबंधों की ऐसी सरल कहानी, फिर भी पूरी तरह देखने लायक।
स्टाईल का आलम यह कि हर सीन में सोनम के कपड़े अलग हैं, बेहतरीन हैं और उतना ही बेहतरीन है पूरी फिल्म का लुक और बाकी कलाकारों की पोशाकें। एक बार के लिए लगता है कि लगभग चार फिल्मों के बराबर कपड़ों का इस्तेमाल एक ही फिल्म में किया गया है लेकिन यह कहीं भी खलता नहीं हैं बल्कि बेहद जमता है।
लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ते हुए अभय का लड़की से प्यार का इज़हार, गलत शादी में अपनी गलती कुबूलती सोनम की प्यार की स्पीच, बेमेल जोड़ी बनाने में कामयाबी हासिल करने की सोनम और पक्की दोस्त ईरा दुबे की बेहिसाब स्कीम, 19 वीं सदी की कहानी को 21 वीं सदी के फैशन से गहरा रिश्ता जोड़ बेहद जीवंत किरदारों से पिरोना। यही सब है आएशा।
स्टाईलिस्ट पर्निया कुरऐशी, कॉस्ट्यूम डिज़ाईनर कुनाल रावल, डिज़ाईनर अनामिका खन्ना इन सब का ज़िक्र लाज़मी बन गया है। ऐसे में फिल्म को अलग नज़र से देखना न केवल ज़रूरी है बल्कि रोचक भी। फिल्म ऐसी जिसमें कोई एक्शन नहीं, कोई बेमिसाल कहानी नहीं लेकिन मौजूद हैं जानदार युवा किरदार, बेजोड़ लुक, अलबेला स्टाईल, फिल्म से लगातार जुड़ी कहानी कहने की सोच, एक प्रवाह, सबके चहेते अभय देओल और लगातार दिल जीतने वाली सोनम कपूर।
दो अन्य लोग जो शानदार प्रभाव छोड़ते हैं, फिल्म को और जीवंत बनाते हैं वो रहे साईरस साहूकार और मासूम शेफाली के रोल में न्यूकमर अमृता पुरी। दिल्ली में रची बसी इस कहानी को देखना रोमांचक भले ही न हो मगर रोचक ज़रूर रहा।
(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए खासतौर पर फिल्मों की समीक्षा करते हैं.)
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