
'हिंदुस्तान ' के न्यूज़ सेंस पर सवालिया निशान
(रविवार /05 सितम्बर 2010 /सलीम अख्तर सिद्दीक़ी/मेरठ )
आज 'हिन्दुस्तान' (4 septomber मेरठ संस्करण) में 'बिगड़ते-बिगड़ते बची शहर की फिजा, तनाव' शीर्षक खबर को प्रमुखता से छापा गया है। (इस खबर को अन्य अखबारों ने इस तरह नहीं छापा है) मेरठ के अखबारों में महीने में इस तरह की तीन-चार खबरें जरुर छपती हैं। मेरठ में हिन्दुओं और मुसलमानों का अनुपात लगभग 60-40 का है। अक्सर किसी छोटी-मोटी बात को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच छोटी-मोटी झड़पें होती रहती हैं। ये झड़पें महज व्यक्तिगत होती हैं। किसी हिन्दु की मोटर साइकिल किसी मुसलमान से टकराने पर ही झड़प हो जाती है। कभी क्रिकेट खेलने पर ही तूतू-मेंमें हो जाती है। कल भी ऐसी ही छोटी-मोटी झड़प थी, जिसे 'हिन्दुस्तान' ने बड़ी बनाकर पेश कर दिया। ऐसी झड़पों का साम्प्रदायिकता से दूर-दूर तक भी वास्ता नहीं होता। लेकिन एक छोटी से झड़प से मेरठ के अखबारों को 'शहर की फिजा' खतरे में नजर आने लगती है। ये झड़पें कितनी महत्वहीन और रुटीन वाली होती हैं, इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता कि जिस क्षेत्र में इस तरह की झड़पें होती हैं, उस क्षेत्र के लोगों को भी पता नहीं चल पाता कि क्या हुआ। जब वे सुबह का अखबार देखते हैं तो उनके मुंह से यही निकलता है, 'अरे! कल यहां यह हो गया हमें तो पता ही नहीं चला'। उस पर तुर्रा यह कि बॉक्स में यह खबर भी डाल दी जाती है कि 'शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया'। जैसे आज की खबर के साथ 'हिन्दुस्तान' ने लगायी है। पता नहीं अखबार को इस तरह की खबरें, जो फिजा को वाकई खराब कर सकती हैं, क्यों छापते हैं। इस तरह की झड़पें महज दो शहरियों के बीच की झड़प मान कर ही खबर लिखी जानी चाहिए न कि दो समुदायों के बीच होने वाली झड़प की तरह।
एक और मजे की बात जान लीजिए। ऐसी झड़पों की खबर लिखते समय अखबारों की अपनी आचार संहिता के मुताबिक, जिसमें लड़ने वालों का धर्म नहीं खोला जाता, 'दोनों समुदाय के लोग आमने-सामने आ गए' लिखा जाता है। यह अलग बात है कि बीच में कहीं लड़ने वालों के नाम से यह बता भी दिया जाता है कि मामला हिन्दु और मुसलमानों के बीच का है। ऐसी खबरों की विशेष बात यह भी है कि मुसलमानों को 'एक वर्ग विशेष के लोग' लिखा जाता है तो हिन्दुओं के लिए 'बहुसंख्यक वर्ग के लोग' प्रयोग किया जाता है। जैसे यह लिखा जाता है कि 'एक वर्ग विशेष के लोगों' या 'बहुसंख्यक वर्ग के लोगों' ने जाम लगा दिया या 'नारेबाजी शुरु कर दी'। हालांकि साथ में लगी तस्वीर साफ बता देती है कि जाम लगाने या नारेबाजी करने वाले कौन लोग हैं। समझ में नहीं आता कि इशारों में बताने के बजाय झगड़ा करने वालों का धर्म ही क्यों नहीं बता दिया जाता है। क्या अखबार वाले अपने पाठक को इतना नासमझ समझते हैं कि वे इशारों की बात नहीं समझेगा ?
ऐसे में जब अयोध्या विवाद का अदालती फैसला इसी महीने के दूसरे सप्ताह में आना सम्भावित है, ऐसी खबरें छापने से अखबारों को बचना चाहिए।
(लेखक मेरठ शहर के जाने -माने पत्रकार हैं .)
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