एक थे लेखक गुलशन नंदा
(मंगलवार /28 सितम्बर 2010 / प्रभात रंजन /नई दिल्ली )
कहते हैं गुलशन नंदा ऐसा लेखक था जिसने जासूसों को प्रेम की भूल-भुलैया में भटका दिया. गुलशन नंदा के लेखक के रूप में आगमन से पहले हिंदी में लोकप्रिय उपन्यासों के नाम पर जासूसी उपन्यासों का बोलबाला था. बोलबाला क्या था उनका जादू सिर साधकर बोलता था. पाठक या तो इब्ने सफी के उर्दू उपन्यासों के हिंदी अनुवाद पढते थे या अंग्रेजी उपन्यासों के अनुवाद. वैसे में ६० के दशक में गुलशन नंदा ने अमीर-गरीब के प्यार का ऐसा फॉर्मूला तैयार किया कि रोमांटिक उपन्यासों की धारा ही चल पड़ी. जिस समय हिंदी में आधुनिकतावादी तर्क को आधार बनाकर गंभीर यथार्थवादी उपन्यास लिखे जा रहे थे गुलशन नंदा ने संयोगों को कथानक का आधार बनाया. अमीर-गरीब, जुड़वां भाई, जन्म-जन्मांतर का प्रेम, शहरी बाबू-गांव की छोरी का प्यार, बड़े आदमी की बेटी का किसी निम्नवर्गीय नायक के प्रेम में पड़ जाना जैसे कुछ सफल मुहावरे उस दौर में व्यावसायिक उपन्यासों के सफलता के फार्मूले माने जाने लगे. इन कथानकों को अपनी शायराना भाषा में पिरोकर गुलशन नंदा ने एक ऐसी भाषा-शैली तैयार की उनकी किताबों को पाठक ‘दिल लगाकर’ पढ़ने लगे. जासूसों के किस्सों को वे भूलने लगे. आप अगर लोकप्रिय उपन्यासों के शैदाई रहे हों तो पायेंगे कि उस दौर में ओमप्रकाश शर्मा के आने तक कोई पाए का जासूसी लेखक नहीं हुआ. वैसे उनका पाया भी बड़ी देर में खड़ा हुआ.
यह कम ही लोग जानते होंगे कि गुलशन नंदा ने अपने लेखन की शुरुआत साहित्यिक ढंग के उपन्यासों से की थी. उन दिनों जब वे दिल्ली के बल्लीमारान में एक चश्मे की दूकान में काम करते थे. उनके आरंभिक उपन्यासों ‘सांवली रात’, ‘रक्त और अंगारे’, ‘कलंकिनी’ में वह तत्त्व नहीं था- वह भावुकता जिसके कारण उनके उपन्यास किशोर उम्र के लड़के-लड़कियां अकेले में बैठकर पढ़ना चाहते थे ताकि उनकी आँखों की नमी को कोई देख न पाए. और उनके माता-पिता छुपकर उपन्यास पढते हुए उनको वैसे ही पकड़ लेटे थे जैसे प्रेमी या प्रेमिका के साथ रंगे हाथ पकड़ लिया हो. ऐसे उपन्यासों को पढ़ने पर पाबंदी थी. कहा जाता था कि इसको पढ़ने से आदमी बिगड़ जाता है. नई उमर के लड़के उन बंदिशों को तोड़कर गुलशन नंदा के उपन्यास पढते थे. मैं तो इतना उत्साही हो गया हूँ कि कहने को जी करता है कि गुलशन नंदा जैसे लेखकों की सफलता की ज़मीन बड़े पैमाने पर किए गए युवा वर्ग के विद्रोह ने तैयार की थी. छुप-छुप के पढ़े जाने के उस दौर में गुलशन नंदा सबसे बड़े नाम थे. ‘नीलकंठ’ और ‘गेलॉर्ड’ जैसे उपन्यासों से उनका जादू चल निकला. उन्होंने अपने जीवन में केवल ४७ उपन्यास लिखे लेकिन वे पहले लेखक थे जिन्होंने अपने उपन्यासों को अपनी कीमत पर बेचा. अपनी शर्तों पर बेचा.
कहते हैं बाद में वे दिल्ली के मशहूर होटलों में बैठकर उपन्यास लिखा करते थे. ‘गेलॉर्ड’ नामक उपन्यास उसने दिल्ली के गेलॉर्ड रेस्तरां में बैठकर लिखा था. वे दिन भर वहीँ बैठकर लिखते, जब उपन्यास पूरा हुआ तो उसका नाम रखा ‘गेलॉर्ड’. वे पहले उपन्यासकार थे जिनके एक उपन्यास ‘झील के उस पार’ की ५ लाख प्रतियाँ उस ज़माने में बिकी जब हिंदी में इतनी किताबें बिकने का रिवाज़ नहीं था. वे पहले लेखक थे जिन्होंने हिंदी के लेखकों को ग्लैमर से परिचित करवाया. उनकी शाहाना जिंदगी के उन दिनों किस्से छपा करते थे. बाद के दौर में उन्होंने मुम्बई में अपना एक बंगला बांद्रा के उस इलाके में बनवाया जिसमें बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारे रहा करते थे. नाम रखा ‘शीशमहल’.
कहते हैं जब वे मुंबई से दिल्ली आते थे तो हवाई अड्डे प्रकाशक लाइन लगा कर खड़े रहते थे. किसी प्रकाशक को अगर उनकी पुस्तक उन दिनों मिल जाए तो वह उसके लिए कारू का खजाना साबित हो सकती थी. उनके लगभग दो तिहाई उपन्यासों पर फ़िल्में भी बनी. बाद में तो यह होने लगा कि वे उपन्यास लिखना शुरू करते और उनके ऊपर फिल्म का निर्माण भी होने लगता. उधर फिल्म रिलीज़ होती इधर उपन्यास छपकर आ जाता. अक्सर जनता दोनो को हाथोहाथ लेती थी. सिनेमा की ही तरह उन दिनों उनके उपन्यासों के विज्ञापन छपा करते थे.
सलीम-जावेद से पहले के दौर में हिंदी सिनेमा में एक ही लेखक था जिसकी कहानी को सफलता की पक्की गारंटी कहा जाता था- गुलशन नंदा. सलीम-जावेद की तरह उन्होंने एंग्री यंगमैन का कोई युगान्तकारी मुहावरा नहीं गढा लेकिन अपने दौर की सामाजिक विषमताओं, सामाजिक मजबूरियां और इनके बीच सिसकते संबंधों के रसायन से से वह सिनेमाई मुहावरा दिया कि यकीन मानिए जितनी सफल फ़िल्में इस लेखक ने लिखी उतनी सफलता किसी और फ़िल्मी-पटकथाकार को नसीब नहीं हुई. वे फ़िल्में अच्छी थी या नहीं यह अलग विषय है गुलशन नंदा का नाम सफलता का ऐसा मानक बना कि उनके मरने के बाद भी उनकी लिखी ‘बिंदिया चमकेगी’, ‘पाले खान’ जैसी फ़िल्में सफल रहीं. पारिवारिकता का एक ऐसा आदर्श गढा उनकी फिल्मों ने जो एक तरह से उस समय के समाज का भी आदर्श था. जिसमें अंत भला तो सब भला होता था. बुरा आदमी एक दिन अच्छा हो जाता था, भटके हुए सही रास्तों पर लौट आते थे. मन के सारे मैल धुल जाते थे. काल का कलुष मिट जाता था.
एक आलोचक ने लिखा है कि साहित्य में हम भावुकता से क्यों भागना चाहते हैं, जबकि जीवन में उससे अक्सर नहीं बच पाते हैं. वे आधुनिक भावुकता के नहीं उस चरम भावुकता के लेखक थे जिसने लंबे दौर तक हिंदी के पाठकों को पुस्तक से जोड़ने का काम किया. जिस तरह अभिनेता राजेंद्र कुमार को जुबिली कुमार कहा जाता था उसी तरह इनको भी उन दिनों जुबिली लेखक कहा जाने लगा था. इसके उपन्यास पर फिल्म बना लो समझो सिल्वर जुबिली. बाद में उनकी सफलता को काका यानी राजेश खन्ना की सफलता से भी जोड़ा गया. यह कहा जाने लगा या तो काका को ले लो या गुलशन नंदा से फिल्म लिखवा लो. अगर दोनों हो तो सोने पे सुहागा. ‘महबूबा’, ‘दाग’, ‘अमर प्रेम’ जैसी कुछ ज़बरदस्त सफल फ़िल्में इसका उदाहरण हैं. सबकी कहानियाँ सीधे गुलशन नंदा के कलम से निकली थीं.
इस लेखक की लोकप्रियता का आलम यह था कि पहले इनके उपन्यासों को आधार बनाकर फ़िल्में बनाई जाती थी. जब फिल्म जुबिली हिट हो जाती तो फिर उस फिल्म को भी पुस्तकाकार छापा जाता था और वह पुस्तक भी हाथोंहाथ बिक जाती थी. ‘महबूबा’, ‘नया ज़माना’ जैसी फिल्मों की छपी हुई दृश्य कथा खूब बिकी. गुलशन नंदा की सफलता का राज़ उनकी भाषा में भी बताया जाता था. कहते हैं कि अपने कथानक के अनुरूप उन्होंने एक ऐसी भाषा गढ़ी जिसमें कविता थी, वह परिवेश होता था जो कम पैसे में ही किसी रमणीक स्थल की यात्रा करवा देता था, पाठकों को प्यार की गहराइयों में डुबो देता था. गुलशन नंदा की पहचान उनके जीते-जी कभी धूमिल नहीं हुई, उनका फॉर्मूला कभी नहीं पिटा.
लेकिन अब उनका कोई नामो-निशान नहीं. नई पीढ़ी उनको नहीं जानती. उनके उपन्यास कहीं नहीं मिलते. मिलते भी हों तो नहीं बिकते. कहते हैं उनके मरने के बाद फिर से जासूसी उपन्यासों का दौर लौट आया. वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे ‘बड़े’ जासूसी लेखक ने उनके बाद पैदा हुए गैप को भरा. अब तो केवल चार लेखक बिकते हैं- वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, विमल पंडित और थोड़ा-बहुत रितुराज- लोकप्रिय उपन्यासों के एक बड़े विक्रेता ने गुलशन नंदा के बारे में पूछने पर यही जवाब दिया था. ‘भूल जाइये, उनको अब कोई नहीं जानता. जिसको कोई नहीं जानता उसको कोई नहीं पढता, जिसको कोई नहीं पढता उसको कोई नहीं छापता. यह धंधा है...’ उसका आखिरी जवाब था.
आज बताएं तो कौन विश्वास करेगा हिंदी में एक लेखक था गुलशन नंदा के प्रकाशक ने उनके एक उपन्यास के विज्ञापन में लिखा था- ‘गुल तो बहुत हैं मगर एक हैं गुलशन नंदा.’ कि पाठक दुकानों में जा-जाकर पूछा करते थे- गुलशन नंदा का अगला उपन्यास कब आने वाला है.
कौन याद करेगा उनकी मृत्यु के २५ साल हो गए.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पत्रकारिता के व्याख्याता हैं .आप उनके लेख 'जानकी पुल 'ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं .)
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