Saturday, September 25, 2010

ख़ास बातचीत
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


सवाल - सर, सबसे पहले आप यह बताएं कि ,किस तरह आप भारत से आकर नॉर्वे में बसे .
नार्वे आने से पूर्व
नार्वे आने से पूर्व मैं स्वतंत्र लेखन से भी जुड़ा था. जैसे कि धर्मवीर सिंह और राजेश्वरी चौधरी के साथ श्रमांचल पाक्षिक में सहायक संपादक रहा और समय -समय पर समाचारपत्र 'स्वतन्त्र भारत' में स्वतन्त्र लेखन करता रहा. मुझे मेरे बड़े भाई से आमंत्रण मिला कि नार्वे से हिंदी की प्रथम पत्रिका 'परिचय' के प्रकाशन में सहयोग की आवश्यकता है. मेरा पहला कविता संग्रह 'वेदना' १९७७ में प्रकाशित हो चुका था जिससे मेरे बड़े भाई परिचित थे. विद्यालयों और मोहल्ले में सामाजिक और संगठनात्मक कार्यों में बहुत सक्रिय था. इसी काल में अनेक विभूतियों से मिला जिनमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों: शचीन्द्र नाथ बक्शी, दुर्गा भाभी, गंगाधर गुप्ता, रामकृष्ण खत्री और अन्य हमारे कार्यक्रम में आते रहे. लेखकों से विद्यालय में, उत्तर प्रदेश सूचना केंद्र और उत्तर प्रदेश हिंदी समिति में मिला जिनमें प्रमुख हैं: महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद दिवेदी, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, ठाकुर प्रसाद सिंह, भगवती शरण सिंह, शिव सिंह सरोज, डॉ दुर्गाशंकर मिश्र, विनोद चन्द्र पाण्डेय, श्रीलाल शुक्ल, कुंवर नारायण, कामता नाथ, अशोकजी और अन्यों से मिला. राजनीतिज्ञों में इंदिरा गाँधी, जय प्रकाश नारायण, सरदार चरण सिंह, राजेंद्र कुमारी बाजपेई, मोहसिना किदवई, हेमवती नंदन बहुगुणा, अतुल कुमार सिंह 'अन्जान', भारती गाँधी और जगदीश गाँधी से नार्वे जाने के पहले मिल चुका था. इनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. मैंने मारीशस जाने के लिए पहले ही सन् १९७५ में पासपोर्ट बनवा लिया था. जब नार्वे जाने का आमंत्रण मिला तो बहुत उत्सुक्त था. लखनऊ में मेरे ऊपर आरती जिम्मेदारी भी थी. मेरा विवाह माया से सन् १९७७ में हो चुका था और मेरी दो संतानें थी संगीता(१९७८) और अनुराग (१९७९). मेरे पिता अकेले घर का खर्च चलाने वाले थे हालाँकि मेरी मन भी अपनी तरफ से बहुत सहयोग करती थीं. फिरभी मेरे ऊपर भी आर्थिक जिम्मेदारी थी. विदेश जाने की तैयारी के साथ मेरे मन में कई प्रश्नचिन्ह थे: आर्थिक, शैक्षिक और भविष्य से सम्बंधित.
२१ जनवरी १९८० को मैं आखिरी बार रेलवे में नौकरी करने गया था. २३ जनवरी को तैयारी की मित्रों से मिला. अपने दो मित्रों रमेश कुमार और आनन्द प्रकाश के साथ ग्लैमर स्टूडियो में एक संयुक्त चित्र खिंचाया. २४ को प्रातः काल साड़े चार बजे चारबाग रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म नंबर एक पर मुझे भेजने लगभग तीस लोग आये थे. पिताजी, माताजी और जीजाजी मेरे साथ थे. दिल्ली में नार्वे में ख्यातिप्राप्त भारतीय संगीतकार श्रीलाल जी मुझे हवाई अड्डे पर छोड़ने आये थे. उस समय मेरे बाल बड़े थे कंधे तक, दाढ़ी और मूछें भी थीं.
२६ जनवरी १०९८० मेरे जीवन का न भूलने वाला दिन था.
एक अदृश्य स्वप्न लिए २४ जनवरी को दिल्ली के पालम एयर पोर्ट से उड़े और एक दिन मास्को में रहकर गणतंत्र दिवस २६ जनवरी १९८० को ओस्लो में स्थित फोरनेबू एयरपोर्ट पर पहुँच गए. चारो तरफ बरफ थी. तापमान -२२ था. बरफ पहली बार मैंने नजदीक से मास्को में देखी थी. सडक के चारो ओर बरफ के दीवारनुमा ढेर थे. एयरपोर्ट में मुझे लेने मेरे भाई और देवव्रत घोष जी आये थे. उस समय मेरे भाई में मुझसे बहुत प्रेम था. उसी दिन जाड़े की जैकेट और जुटे खरीदे, हगर पर स्नान किया और दूतावास चले गए जहाँ गणतंत्र दिवस पर एक सुन्दर धवाजरोहन समारोह था.
सभी उपस्थित भारतीयों और दूतावास के लोगों ने जो मेरा स्वागत किया वह मन छू लेने वाली बात थी. भारत से छूटे तो फिर भारतीयों से राष्ट्रीय पर्व पर मिले जो एक सुखद अनुभव था. उसी शाम एक दूसरे नागर द्रामिन में श्री त्रिलोचन सिंह जी के घर गए वहाँ मेरे आने की ख़ुशी में रात ढाई बजे तक पार्टी चलती रही. एक ही दिन में अनेक लोगों से मिलने का एक न भूलने वाला अनुभव था. दूतावास में ही 'परिचय' पत्रिका के प्रथम दर्शन हुए. हिंदी में हस्तलिखित तथा अंग्रेजी में टाईप की हुई आफसेट से छपी पत्रिका का अपना प्रस्तुतिकरण था.

हिंदी भाषा को लेकर नॉर्वे के लोगों में किस तरह का रुझान है .
अपने पत्रकारिता के अनुभवों को बांटा हुआ आपके प्रश्न का जवाब देता हूँ.
नार्वे में पहले दिन जब मुझे एयरपोर्ट पर देवव्रत घोष जी मिले तो वह बहुत अच्छी हिंदी बोल रहे थे. जब दूतावास गया वहाँ भी सभी हिंदी बोल रहे थे. जब द्रामिन गया तो मुझसे सभी हिंदी बोल रहे थे पर संवाद पंजाबी में भी लोग आपस में करते थे. भारतीय लोगों में तब भी हिंदी के प्रति बहुत सम्मान था. और उसे अपने देश भारत की राष्ट्र भाषा मानते थे. ये भारतीय लोग विभिन्न प्रान्तों से थे. यदि कहूं की नार्वे में भारतीयों की संपर्क भाषा हिंदी थी और है. कुछ लोगों को हिंदी पढने में दिक्कत भी होती थी इसलिए परिचय में सरल और बोलचाल की हिंदी का प्रयोग बहुलता से किया जाता था. हिंदी बोलकर लोग अपने को सम्मानित महसूस करते थे. नार्वे में सभी नार्वेवासी अपनी भाषा नार्वेजीय में ही बाचीत करना पसंद करते हैं. यहाँ कोई भी समाचार पत्र अंग्रेजी में नहीं छपता था और अभी भी नहीं छपता है.
'परिचय' में हिंदी के अलावा कुछ पृष्ठ पंजाबी में होते थे. मुझे १९८० से लेकर १९८५ तक परिचय का संपादन करने का अवसर मिला. इसी समय मैंने पंजाबी पढ़ना भी सीख लिया था. संपादक के लिए यह बहुत जरूरी था यह जानना कि पत्रिका में क्या प्रकाशित किया जा रहा है. 'परिचय' का संपादन करते मुझे बहुत से खट्टे और मीठे अनुभव हुए. बहुत कुछ सीखने को मिला. पत्रिकारिता के आयाम से रूबरू होता गया. सन् १९८३ से १९८५ तक प्रोफेशनल पत्रिकारिता की शिक्षा प्राप्त कर मैं नार्वे में पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त करने वाला पहला भारतीय होने का सौभाग्य हासिल किया.
कोपेनहेगन डेनमार्क में ८० दशक में फिन थीसेन और अन्य हिंदी पढ़ाते थे. फिन थीसेन बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं और तीसरे विश्व हिंदी सम्मलेन नई दिल्ली में भाग ले चुके हैं जो आज भी ओस्लो विश्वविद्यालय में ईरानी भाषा और हिंदी पढ़ाते हैं. इसकी दशक में क्नुत क्रिस्तिंसें हिंदी और नेपाली पढ़ाते थे और जब मैं एक रेस्टोरेंट में काम करता था तब वे रविवार को वहाँ खाना खाने आते थे और उन्होंने अनेकों विचारों को प्रकाशनार्थ 'परिचय' में छपने दिया था. उनकी हिंदी मौखिक रूप से बहुत कमजोर और उनका प्रेमचंद की कुछ कहानियों का अनुवाद कमजोर था इसीलिए संभवता नहीं छप सकीं. उसके बाद रूठ स्मिथ ने हिंदी के अध्यापन की जिम्मेदारी संभाली. ब्रोरवीग ने गीता का अनुवाद किया. हरे कृष्णा मिशन नार्वे ने भी गीता का अनुवाद कर लाखों प्रतियाँ नार्वेजीय घरों में पहुंचाई.
आजकल जर्मन मूल के क्लाउस पेतेर जोलर हिंदी के अध्यक्ष हैं ओस्लो विश्वविद्यालय में.
हिंदी स्कूल

संगीता सीमोनसेन के नेतृत्व में एक हिंदी स्कूल चल रहा है जिसका उद्घाटन चेन्नई की निर्मला एस मोर्य ने किया था. हिंदी स्कूल ने एक वर्ष पोर कर लिया है. मीना ग्रोवर भी हिंदी पढ़ाती हैं. मैंने भी हिंदी विश्वविद्यालयों और निजी तौर पर पढ़ाई है. कुछ भारतीय महिलायें ८० दशक में कवितायें लिखती थीं पर अब अन्य व्यस्तताओं के कारण बन्द है. हर महीने भारतीय-नार्वेजीय सूचना और सांस्कृतिक फोरम द्वारा एक लेखक गोष्ठी आयोजित होती है जिसमें आप अपनी रचना अपने विचार हिंदी और नार्वेजीय भाषा में व्यक्त करते हैं यह संस्था पिछले आठ वर्षों से प्रेमचंद का जन्मदिन भी मनाती है जिसमें भारतीय दूतावास का भी सहयोग मिलता है.
नार्वे में भारतीय फ़िल्में भी बहुत लोकप्रिय हैं जो हिंदी में होती हैं. ये फ़िल्में अक्सर शनिवार और रविवार को दिखाई जाती है.
बहुत से भारतीय, पाकिस्तानी और बंगलादेशी और कुछ नार्वेजीय लोग भारतीय हिंदी टी वी चैनल भी कुछ पैसे खर्च करके/ ग्राहक बनकर आसानी से देखते हैं. अनेक नार्वेजीय हेल्थ क्लब और संस्थान भी योग की शिक्षा अपनी तरह से देते हैं जिसमें भी हिंदी का प्रयोग होता है. सब मिलाकर विदेशों में (नार्वे में) लोगों का हिंदी को लेकर जागरूकता है और भविष्य उज्जवल है.

आप अपनी पत्रिका स्पाइल - दर्पण के बारें में बताएं . नॉर्वे से हिंदी पत्रिका निकालने का विचार कहाँ से आया .
'परिचय' के साथ एक पत्रिका 'पहचान' प्रकाश में आयी. इसके बाद दूतावास से अशोक तोमर ने 'भारत समाचार' शुरू किया जिसमें मैंने हिंदी में अनुवाद और संयोजन किया था. फिर कैलाश राय ने 'त्रिवेणी' पत्रिका सम्पादित और प्रकाशित की जो तीन वर्ष चली. फिर 'सनातन मंच' पत्रिका जो धार्मिक पत्रिका थी इसे राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने सनातन मंदिर सभा के सहयोग से निकाला जो कुछ वर्ष चली.
प्रवासी टेम्स और शांतिदूत निकली पर पारिवारिक प्रशंसा और निहित स्वार्थ के चलते ये पत्रिकाएं भारतीयों के बीच प्यार न पा सकीं अतः ये दोनों पत्रिकाएं पांच सालों से बन्द हैं.
मैंने देखा कि भारतीयों की आवाज उठाने वाली कोई पत्रिका नहीं थी.
भाषा और अभिव्यक्ति के लिए स्पाइल-दर्पण की आवश्यकता
यदि भाषा को जीवित रखना है तो संवाहक के रूप में उसकी पत्र-पत्रिका होना बहुत जरूरी है. अतः यही विचार और हिंदी सेवा की मिशन भावना ने मुझे स्पाइल-दर्पण पत्रिका को शुरू करने पर विवश किया. स्पाइल-दर्पण में नार्वे में भारत के सभी राजदूतों, भारत के केन्द्रीय मंत्रियों के अतिरिक्त नार्वेजीय मंत्रियों और लेखकों का सहयोग और पत्र समय-समय पर प्राप्त होता रहा है.

स्पाइल-दर्पण पूरे विश्व में हिंदी की ऐसी पत्रिका है जिसने अधिकांश प्रवासी रचनाकारों की पहली रचना को स्थान दिया और प्रोत्साहित कर मील का पत्थर साबित हुई है. इस साल हमको यहाँ सरकार से इस वर्ष आर्थिक सहयोग नहीं मिल रहा है पर पत्रिका को निरंतर रखना अपना हिंदी के प्रति फर्ज और मिशन समझता हुआ पूरा करूंगा. हाँ यह जरूर कहूँगा की मुझे यहाँ के राजनीतिज्ञों और भारतीय लेखकों और विदेश में रहने वाले प्रवासी लेखकों का जो सहयोग और उससे ज्यादा प्रेम मिल रहा है वही पत्रिका के लिए लिए सबसे बड़ी शक्ति है. इस पत्रिका ने भारतीय प्रवासी लेखकों और प्रवासी भारतीयों के हक़ के लिए उनके हित के लिए समय -समय पर आवाज उठाई है. हालाँकि भारत के बड़े- बड़े अखबार अभी भी इस पत्रिका के बारे में कम ही जानते हैं वे अपने दिल्ली के पत्रकारों और मित्रों पर विश्वास करके नार्वे में हिंदी के बारे में अपूर्ण और मन गढ़ंत समाचार और लेख छपते हैं. जिसमें 'अमर उजाला' में छपे दिल्ली के एक लेखक के पुत्र के साक्छात्कार में और मारीशस से छपी त्रैमासिक पत्रिका 'विश्व हिंदी पत्रिका' ने जो लेख नार्वे में हिंदी के बारे में छापा उसमें केवल दो प्रतिशत लेख में ही सत्य लिखा गया है इससे संपादक और लेखक की विश्वशनीयता पर सवाल खड़े होते हैं. प्रवासी पत्रिकाएं इस मामले में बेहतर हैं. नेट पत्रिकाओं ने भी अपना एक अलग स्थान बनाया है.
स्पाइल-दर्पण का प्रसार अनेक देशों में है
स्पाइल-दर्पण भारत, नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क, यू के, जर्मनी, अमरीका, कनाडा और नेपाल में पढ़ी जाती है. पर अभी इसकी प्रसार संक्या ज्यादा नहीं है. महंगी होने के कारण भारत में ज्यादातर संस्थाएं और संस्थान ही इसकी ग्राहक है. यह राजधानी में मुख्य समाचार पत्रों और संस्थानों को भेजी जाना शुरू कि गयी है. स्पाइल का शुभारम्भ १९८८ में हुआ था. २३ वर्षों से स्पाइल-दर्पण विदेशों में हिंदी साहित्य और भारतीय परिवेश का दर्पण है. स्पाइल-दर्पण पर लखनऊ विश्वविद्यालय से शोध हो चुका है जिसमें निर्देशन प्रो योगेन्द्र प्रताप सिंह और शोधकर्ता गरिमा तिवारी थीं.

क्या आप को लगता है हिंदी भाषा को जितना महत्व आजकल विदेशों में मिल रहा है , हमारे देश में यह भाषा संघर्ष कर रही है .
हिंदी भारत में आम जनता की भाषा है. यह गरीबों और फिल्मों की भाषा भी है. भारत के ८० करोड़ लोगों को हिंदी थोड़ी या ज्यादा बोलनी आती है. यही इसकी शक्ति है. हिंदी को गरीबों और अनपढ़ों की भाषा का दर्जा अनेक हिंदी विरोधियों या अपने को तुर्रमखां समझने वाले लोगों ने दिया है. इसका वर्गीकरण किसी अन्य लेख में किया जाएगा.
विदेशों में हिंदी का प्रचलन बढ़ रहा है
हालाँकि जब विदेशी अपने देश में हिंदी सीखकर भारत जाते हैं तो काफी लोग उनसे हिंदी की जगह अंग्रेजी में बातचीत करते है. ये हिंदी प्रेमी विदेशी जानते हैं कि भारतीय हीन भावना से ग्रस्त हैं. अतः वे गरीबों से संपर्क करते है. आम आदमियों से आदिवासियों से संपर्क करते हैं. इससे एक तो यह बात होती है कि विदेशी हिंदी प्रेमियों को भारत की सही तस्वीर और सोंच मिलती है क्योंकि टी वी में प्रदर्शित सीरियल मात्र उच्च वर्ग के लिए और अन्य वर्गों को भ्रमित करने के लिए है जिसे देखकर आप किसी भी विषय पर शोधपरक या ज्ञानपरक लेख नहीं लिख सकते क्योंकि समाचार को छोड़कर अधिकतर कार्यक्रमों में सत्यता से सम्बन्ध नहीं होता.
भारत देश में हिंदी को जो सम्मान उसे न्यायालय, कार्यालयों, नौकरशाहों द्वारा और नौकरियों में मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है. मुझे पूरा विश्वास है कि नयी पीढ़ी भविष्य में एक दिन सब कुछ बदल देगी और जो प्रायोगिक, सर्वजनहिताय और भेदभावरहित होगा.
तभी देश का उत्पादन, आर्थिक स्थिति का लाभ सभी को मिलेगा और भारत में हिंदी के अलावा सभी बच्चों को निशुल्क भोजन, निशुल्क शिक्षा और निशुल्क चिकित्सा मिला करेगी. हिंदी के द्वारा शिक्षा से ही देश में कम धन में अति उपयोगी और प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली को घर-घर पहुँचाया जा सकेगा. हिंदी का संघर्ष मुझे अंग्रेजी भाषा कि तरह लगता है. एक समय अंग्रेजी हिंदी की तरह अपने देश में ही पहचान के लिए तड़प रही थी. वह गरीबों कि भाषा थी. बस हमारे हिंदी सेवियों को परिश्रम और त्याग से राजनैतिक बल का प्रयोग करते हुए हिंदी को पूरे भारतीयों के लिए भेदभावरहित भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना होगा.


आप को क्या लगता है की हिंदी भाषा के प्रचार -प्रसार पूरी दुनिया में हो ,इसके लिए सरकार को क्या कदम उठाने चाहिए .
भारतीय-सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, आई टी मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय, विदेश मंत्रालय इसमें बहुत योगदान दे सकता है. सभी दूतावासों में सभी को हिंदी की जानकारी अनिवार्य होनी चाहिए. जब हमारे देश के विदेशी मिशन और संस्थान ही अपनी भाषा को नहीं जानेंगे तब वह उसके विकास के बारे में कैसे सोच सकते हैं. यदि डिप्लोमैट परीक्षा में हिंदी विषय अनिवार्य और उच्चकोटि का हो तो अवश्य ही वह बहुतों को तो प्रोत्साहित करेगा ही बल्कि भारत से भारतीयों के अलावा विदेशियों का भी हिंदी के प्रति सम्मान और प्रसार बढ़ाएगा. भारत में प्रतिभाओं कि कमी नहीं है पर सही व्यक्ति को अक्सर सही पद नहीं मिलता. पर स्थिति पहले से बेहतर है जो और भी बेहतर हो जायेगी.
दूसरी तरफ अकेले सरकार पर या अन्य पर आसरा/ भरोसा करके हिंदी का प्रचार देश और विदेश में नहीं बढ़ना है. इसके लिए हर एक व्यक्ति को भी कुछ करना चाहिए जिसके बस में हो.
'हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं,
काटना क्यों चाहते हो नयी फसल जब तुम्हें बोना नहीं.'
यह भी सोचिये कि आपने हिंदी के लिए क्या किया है?
नॉर्वे में भारतीय समुदाय के प्रति यहाँ के लोगों का रवैया कैसा रहता है .
किसी भी समुदाय का की छवि उसकी समाज में भागीदारी को लेकर होती है. दो चार लोग तो आज से नब्बे साल पहले नार्वे आये थे जिनमें एक का नाम था प्रोफ़ेसर बारल जो कलकाता से थे उन्होंने एक नार्वेजीय युवती से विवाह किया था उनके नाम से थ्रोंद फ्येल नमक स्थान पर म्यूजियम है. वैसे भारतीयों ने सन् १९७० से १९७५ तक आये. उसके बाद इमीग्रेशन बन्द हो गया. जब मैं आया था तो नार्वे में तीन महीने तक का वीजा नहीं लेना पड़ता था.
नार्वे में भारतीयों की छवि अच्छी है. वैसे तो शुरू में जो भारतीय लोग नार्वे आये उनमें सेमिस्किल्ड और स्किल्ड वर्कर की बहुलता थी. पर बाद में शिक्षा प्राप्त करके भारतीय इंजिनियर, डाक्टर और भारतीय निजी व्यवसाय से जुड़े. नार्वेजीय यह समझते हैं कि भारतीय लोग पढ़े लिखे, परिश्रमी, स्वतन्त्र और शांति पसंद होते हैं.
नार्वे में भारतीय भोजन पसंद किया जाता है. बहुत से भारतीय खानों के रेस्टोरेंट हैं जिनके मालिक भारतीयों के अलावा अन्य देशों के प्रवासी लोग हैं. भारतीय खाने-पीने का सामान और मसाले आसानी से यहाँ मिल जाते है. भारतीय सब्जियां यहाँ प्रवासी दुकानों के अलावा बहुत सी नार्वेजीय दुकानों में भी मिल जाती हैं. कनकी भारतीयों की नार्वेजीय समाज में भागीदारी प्रगतिशील है अतः भारतीयों की छवि अच्छी है.

नॉर्वे के लोगों की एक खास बात बताएं जो हमारे देश के लोगों को अपनाना चाहिए .
नार्वे के लोग प्रायोगिक, स्वतन्त्र, शांति पसंद होते हैं वह दूसरों के निजी मामलों में दखल नहीं देते है.
नार्वेजीय लोग जातपात, विचारों में भेद होने पर जरा सा भी ध्यान नहीं देते. विचारों में सहमत या असहमत होने पर आपसे बहस नहीं करते. टूटी-फूटी नार्वेजीय भाषा बोलने पर भी बोलने वाले को प्रोत्साहित करते हैं और ध्यान से सुनते हैं. अपनी भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं पर भाषा न आने पर अंग्रेजी आदि से आपकी मदद कर देते हैं, फ़्रांस वालों की तरह नाक मुंह नहीं फुलाते. आप किस तरह के कपड़े पहने हैं और क्या खाते हैं इसपर नार्वेजीय लोगों को कोई फरक नहीं पड़ता. हाँ आश्चर्य जरूर करते होंगे कि स्त्री-पुरुष को समान अधिकार वाले इतने स्वतन्त्र ख्याल और उच्च जीवनस्तर के देश में पर्दाप्रथा की क्या जरूरत पर न तो टोकते हैं न ही पाबन्दी के पक्ष में हैं?
नार्वेजीय लोग अपना पास पड़ोस, स्कूल, पार्क आदि को साफ़ रखने के लिए श्रमदान भी करते हैं और कूड़ा कूड़ेदान में ही फेंकते हैं.
बस, ट्राम, मैट्रो और रेल में प्रायः लोग टिकट लेकर यात्रा करते हैं. यदि आप बस में टिकट लेते हैं तो वह २२ कि जगह ३० क्रोनर का मिलता है. अतः समय बचने के लिए लोग टिकट पहले ले लेते हैः जो सस्ता भी पड़ता है.
पार्टी में आप कैसे कपड़े पहने हैं और कैसे खाना खाते हैं उसपर इंग्लैण्ड और स्विट्जरलैंड कि तरह भेदभाव और बुरी दृष्टि से नार्वेजीय लोग नहीं देखते. कभी-कभी आपकी प्रेम से मदद भी कर देते हैं बिना आपको हीन समझे हुए. बच्चों को बहुत स्नेह और प्रेम से देखते हैं.
ट्राफिक में जेब्रा क्रासिंग पर सबसे पहले पैदल लोग निकलेंगे फिर भी यदि कोई बच्चा या अन्य सड़क पर गलत तरीके से ही क्यों न आ गया हो उसे पहले जाने देते हैं. यदि खतरे से न बचाना हो तो कोई भी कर या मोटर हार्न नहीं बजाता.
हमको नार्वे से अपने देश में अधिक टैक्स देना, बच्चों और महिलाओं को समान अधिकार और इज्जत देना सीखना चाहिए.

nigetiy की भविष्य की क्या योजनायें है .
पत्रकारिता और फिल्म निर्माण को सरल और अधिक लोगों से जोड़ने के लिए और अनेक प्रकार के टी वी कार्यक्रम/सीरियल, डाकूमेंट्री फिल्म आदि को प्रोत्साहित करने के लिए आम आदमियों के लिए मल्टीमीडिया इंस्टीट्यूट खोलना चाहता हूँ. मैंने मध्यप्रदेश सरकार से अपनी बात रखी जहाँ मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री ने मेरी बात सुनी पर कार्य अभी आगे नहीं बढ़ सका. मैं भविष्य में दिल्ली की मुख्यमंत्री आदरणीय शीला दीक्षित जी से और उत्तर प्रदेश में बहन मायावती जी से भी इस सम्बन्ध में मिलना चाहूँगा.
दूसरा लखनऊ में सरकारी और लेखकों के सहयोग से लेखक भवन का निर्माण जिसमें संगीत, नाटक, लेखक सेमिनार के लिए कम दामों पर छोटे और बड़े हाल मिल सकें और संगीत और नाटक-फिल्म आदि के रियाज के लिए निशुल्क साजसज्जा से परिपूर्ण कमरे मिल सकें.
न ही लखनऊ में और नोएडा में आम आदमी या विद्यार्थी के लिए फिल्म स्टूडियो और इंस्टीट्यूट में कोई जगह नहीं है. मैंने कुछ वर्ष पहले मुंबई में भी घूम-घूमकर देखा. यदि आप मामूली तरीके से जाते हैं और आम बात करते हैं तो आपको मामूली और बेकार व्यक्ति समझकर तिरस्कार किया जाता है. सभी भारतीय बच्चों में और गरीब छात्रा और छात्रों में भी प्रतिभा है पर अवसर नहीं मिलता. मेरी प्रार्थना है कि मीडिया विशेषकर समाचार पत्र और टी वी चैनल और अधिक नए और छोटे फिल्मकारों और प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करे.


आप हमारे पाठकों को अपनी ज़िन्दगी के शुरूआती दौर के बारें में कुछ बताएं . किस तरह से आपका बचपन बीता. आप ने कहाँ से पढाई -लिखी पूरी की
मेरी बेसिक शिक्षा नगरमहापालिका स्कूल ऐशबाग लखनऊ में हुई जहाँ से मैंने कक्षा पांच कि परीक्षा उत्रीण की थी. बेसिक स्कूल में मेरे अध्यापक नन्हा महाराज और राम विलास जी ने हिंदी, गणित और कविता- अन्त्याक्षरी में प्रवीण कर दिया था. मुझे इस बात का गर्व है कि मुझे नगर महापालिका में शिक्षा प्राप्त की जहाँ अध्यापक बहुत अच्छे थे.
कक्षा ६ से कक्षा १० तक की शिक्षा प्राप्त की गोपीनाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज से और सन् १९७२ में हाईस्कूल पास किया.
वर्ष १९६९ कुछ खास था
१९६९ में महात्मा गाँधी जी कि जन्मशती पर विद्यालय में गांधी जी पर वादविवाद प्रतियोगिता थी उसमें हिस्सा लिया और पुरस्कार प्राप्त किया. इसी वर्ष मेरी वर्षा पर आधारित पहली कविता अख़बार में छपी. इसी वर्ष होली के कार्यक्रम में अपनी कविता पढ़ी. मेरे पिताजी ने मेरी माँ को बताया कि मैंने मंच से कविता पढ़ी. जब अख़बार में कविता छपी तो मेरे अध्यापक ने बधाई दी क्योंकि वह भी कविता लिखते थे.
१९७२ में रेलवे में एक श्रमिक के रूप में नौकरी लग गयी. आर्थिक रूप से अपने पिता का बोझ उठाने लगा. इसके पहले सन् ७१ में मैंने एक साबुन की फैक्ट्री में गर्मी की छुट्टियों में २ रूपये दिन की मजदूरी के हिसाब से भी काम किया. आम की पेटी बनाना सीखा. अपने हाथों कड़ी मेहनत से कैसे पैसा कमाया जाता है उसका अनुभव होने लगा था. रेलवे में नौकरी करते हुए डी ए वी कालेज से १९७५ छात्रसंघ का चर्चित चुनाव लड़ा और यहाँ से ही इंटर की परीक्षा पास की जहाँ मेरे अध्यापक उमादत्त त्रिवेदी, वी पी सिंह और रमेशचंद्र मिश्र से मेरा संपर्क बाद में भी रहा.
छात्र नेता का आज भी समाज में वह स्थान नहीं है जो होना चाहिए.
लखनऊ में बी एस एन वी डिग्री कालेज, (लखनऊ विश्वविद्यालय) से बी ए (स्नातक) परीक्षा पास की थी. बी एस एन वी डिग्री कालेज में मेरा संपर्क हिंदी के अध्यापक डॉ ओम प्रकाश त्रिवेदी, दीक्षितजी और कृष्ण नारायण कक्कड़ जी से बहुत वर्षों तक रहा. यहाँ छात्रनेता के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली और जय प्रकाश नारायण जी के संपर्क में भी आया. कानपुर से श्रमिक मंत्रालय से श्रमिक शिक्षक का शिक्षण प्राप्त कर चुका था. इसी के साथ लखनऊ में स्थित उत्तर रेलवे के सवारी और माल डिब्बा कारखाना आलमबाग में १९७२ से कार्यरत था. विद्यालय के छात्र यह नहीं जानते थे की मैं शादीशुदा हूँ और रेलवे में नौकरी करता हूँ. मुझे बताने में कोई आपत्ति नहीं थी पर डी ए वी कालेज में अनुभव हो गया था कि हमारे छात्र मित्रों को मेरे जैसे एक श्रमिक को वह छात्र नेता के रूप में नहीं देखना चाहते थे. अतः मिथक तोड़ने के लिए डी ए वी विद्यालय के खेलकूद में हिस्सा लिया और फ्री एथलीट में तीन पुरस्कार भी प्राप्त किये. पूरी नौकरी की जिम्मेदारी बिना अनुपस्थित के निभाना बहुत कठिन था. गुरुओं ने बहुत सहयोग दिया.

कोई ऐसी घटना याद आती है ..जिसे आप आज तक नहीं भूल पायें हो . या फिर उस घटना ने आपकी ज़िन्दगी पर गहरा छाप छोड़ा है .
जीवन में अनेक घटनाएं घटी हैं जिनमे बहुत सी घटनाएं ऐसी हैं कि जिन्हें स्मरण करते ही मन पुलकित या व्यथित हो जाता है.
यहाँ मैं टी घटनाओं का वर्णन कर रहा हूँ.
पहली घटना १९७५ की है जब मैं २१ वर्ष का था डी ए वी कालेज में १२वीं कक्षा में पढ़ता था और श्रमान्चल पाक्षिक पत्र में सहायक संपादक था. विभिन्न इंटर कालेजों के छात्रसंघों के नेताओं को मिलाकर इंटर कालेज छात्रमहसंघ लखनऊ को गठित किया गया. मुझे भी उसमें सम्मिलित किया गया. राजेश्वरी चौधरी श्रमान्चल में व्यवस्थापिका थीं. मैं एक दिन साईकिल पर पीछे बैठाकर अपने घर लाया. पत्रिका और छात्रा राजनीति पर बातचीत करनी थी. मेरी माँ ने जब जाना की वह दूसरी जाति की हैं तो हमारे कप-प्लेट और बर्तन से अलग कर दिए थे. पर जब मैंने अपने अन्य धर्मों और जाती के मित्रों को घर लाना न छोड़ा तो वही माँ मुझे सहयोग देने लगीं.
हमारे जीवन में बहुत सी घटनाएं ऐसी घटती हैं जिन्हें हम जीवन भर छिपाए रहते हैं. कभी हम दूसरों के साथ बांटते हैं. हालाँकि खुली किताब की तरह जीवन जीने की कोशिश की है परन्तु बहुत कुछ छिपाना पड़ता है. खुली किताब की तरह जीवन जीना आसान नहीं है.
दूसरी घटना है जब हनुमान सेतु, लखनऊ (विश्वविद्यालय के सामने) में मेरी मुलाकात अमरीकी युवती लक्ष्मी मिलिंग से हो गयी. उसे मैं अपने घर ले आया और वह हमारे घर तीन दिन रही. उस समय भी मेरी मेहमाननवाजी को और सह्रदयता को मेरे घर वाले देर से समझ पाए. बाद में उसके दो-तीन पत्र आये. कभी- कभी सोचता हूँ हमारा उनसे क्या रिश्ता होता है जो दो पल में अपने लगने लगते हैं. किसी से तो बस एक बार मुलाकात होती है फिर कभी नहीं होती और किसी से मुलाकात होकर भी मुलाकात नहीं लगती.
जब २००७ में न्यूयार्क में विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने गया तो पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो गयीं.
तीसरी बात जो मुझे दिल में लगी वह उस समय की बात है जब लखनऊ में फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट खुला था. उसमें मैंने भी आवेदन किया था. मेरे साक्षात्कार के बाद मुझे दाखिला मिल गया. पर दो हजार से अधिक फीस कैसे दी जाए. इस समस्या ने मेरे कदम रोक दिए. अतः कुछ समय के लिए मन फिल्म बनाने का स्वप्न धूमिल होता दिखाई दिया. सन् १९८५ में मैंने पहली टेलीफिल्म आठवां चाचा में अभिनय किया और १९९६ में पहली टेलीफिल्म जो पचास मिनट की थी दिल्ली में बनाई. तब बहुत अच्छा लगा की मेरा सपना अब अधूरा नहीं रहा.
जब कुछ वर्ष पहले मेरा साक्षात्कार दिल्ली दूरदर्शन के लिए शीतल राजपूत और एक अन्य प्रस्तोता ने लिया था तब यही बात बताते हुए मैं भावविभोर हो गया था तब उन दोनों ने जिस तरह मेरा साक्षात्कार प्रस्तुत किया वह न भूलने वाले क्षण हैं.
अभी जनवरी में मेरी चौथी टेलीफिल्म अंड शर्मा जी के सहयोग से बनी. यदि शर्मा जी का संपादन, अजय गौतम की फोटोग्राफी और प्रिया और जमील खान तथा योगेन्द्र विक्रम सिंह का अच्छा अभिनय न होता तो किस लिए मैं फ़िल्मकार. फिल्म निर्माण एक टीमवर्क होता है. इस १२ मिनट की लघु फिल्म का नाम गुमराह है जो नेट पर लगी है..
आप यहाँ पर रहते हुए क्या भारत की चाय और लिट्टी -चोखा को मिस करते हैं .
मैं ३० वर्षों से नार्वे में हूँ. यहाँ इतने समय रहकर मैं नार्वेजीय नहीं बन सका हूँ. और भारतीयता छोड़ नहीं सकता यह मेरी असमर्थता है. मैं एक प्रवासी पक्षी की तरह हूँ जिसके पंख संस्कृति रुपी पेड़ में फंस गए हैं. यदि उदूं तो पंख टूट जायेंगे नहीं तो यहीं पर तड़प-तड़प कर मर जायेंगे. मेरे हिंदी में काव्य संग्रह का नाम 'नीड़ में फंसे पंख है' जिसमें मेरी इसी दार्शनिकता को वर्णित किया गया है.
एक कविता कुछ हद तक मेरे विचार व्यक्त करती है.
'छोड़ कर सब आ गए परदेश में
बना बैठे घोंसला परदेश में
आराम से जिएंगे मर जायेंगे
फिर भी प्रवासी हम यहाँ कहलायेंगे.'
इस गीत के साथ आठ गीतों का एक कैसेट बना था जिसे संगीत से सजाया था बाल किशन ने और सुनील जोगी ने कैसेट बनाने में सहयोग दिया था.
एक बात और मैं यहाँ कहना चाहूँगा, जो भी हो jस्वचालित यंत्रों से जो पेय चाहे कोला हो या पेप्सी या चाय व काफी पर उसमे मुझे वह आनन्द नहीं मिलता जो अपने लोगों से मिलता है. मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियों में यह भाव व्यक्त हुआ है:
'क्या दे पाएंगे अपनापन
ये स्वचालित काफी चाय संयंत्र
जो कभी मिलता था, बहन बेटी के हाथों
एक प्याला चाय का सोंधापन.

ख़ाली समय में आप क्या करना पसंद करते हैं .
जब समय खाली होता है तो सोचता हूँ कि मैं किनको भूल रहा हूँ और किनको याद करना चाहिए और यह सोचे बिना कि उसने मुझे फोन किया है कि नहीं चाहे वर्षों से भी संपर्क न हुआ हो खोज निकालता हूँ और फोन करता हूँ और अब मैंने दोबारा पत्र लिखकर डाक से भेजना शुरू किया है और पत्र लिखता हूँ. जब मैं मैट्रो स्टेशन, बसस्टाप, आदि पर यात्रा करते या प्रतीक्षा करते समय मैं कविता लिखता हूँ, नोट्स लिखता हूँ और कभी-कभी कोई पुस्तक और अख़बार पढ़ता हूँ. मेरे पास इस समय दो कारें हैं पर कार चलाना ज्यादा पसंद नहीं करता. जब बच्चे या मित्र साथ होते हैं तब और बात होती है. जब बहुत अकेला होता हूँ तब कोई स्वरचित गीत जोर-जोर से गाता हूँ वह भी घर में. उनके बारे में भी सोचता हूँ जिन्हें मैं प्रेम और सम्मान देता हूँ जिनसे एक दो बार मिला हूँ पर दोबारा नहीं मिल पाया उन्हें स्मरण करता हूँ. कुछ को फोन करके भी शुभकामना दे देता हूँ इसी तरह खाली समय बीत जाता है जो कभी खाली नहीं रहता.


भारत के लोगों के लिए कोई सन्देश -
पहले तो मैं सभी लोगों का आभारी हूँ जो मुझे मेरी साहित्यिक और फ़िल्मी रचनाओं के लिए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और किसी भी रूप में मुझे याद करते और प्रोत्साहित करते हैं. मुझे बहुत अच्छा लगेगा जब हमारे भारत देश के सभी बच्चों को नार्वे जैसी सुविधा मिले और सभी हष्टपुष्ट हों. सभी खुश रहें, मिलजुलकर रहें. लिंग, जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव न करें और राजनीति में सभी जागरूकता से हिस्सा लें ताकि राजनीति में सच्चाई और ईमानदारी की जीत हो.
मीडियामंच के माद्यम से मैं आप सभी को बहुत याद करता हूँ, स्नेह और सम्मान देता हूँ और शुभकामनाएं देता हूँ जिनसे मैं किसी भी संस्थान, बैठक, सभा, जहाँ भी मंच पर, मीडिया के माध्यम से, स्कूल कालेजों, विश्वविद्यालयों में बहनों-भाइयों और मित्रों को , २६ जनवरी में एन सी सी कैम्प दिल्ली में आये युवाओं जिन्हें वर्षों तक संबोधित किया सभी को और जिनसे संवाद चाहकर भी समयाभाव में नहीं कर सका उनको भी, सभी को ह्रदय से शुभकामनाएं देता हूँ और आपका जीवन सफलताओं से भर जाए यही सन्देश देता हूँ.

No comments: