Sunday, September 26, 2010
हज़रत अमीर खुसरो के उर्स पर विशेष
(रविवार /26 सितम्बर 2010 /हृदेश सिंह /मैनपुरी )
हज़रत अमीर खुसरो के 706 वां उर्स के मौके पर विशेष
''छाप तिलक सब छिनी रे तो से नैना मिला कै''
हज़रत अमीर खुसरो का नाम ज़ेहन में आते ही एक ऐसी अज़ीमों शान शख्सियत की तस्वीर आकार लेने लगती है जिसको लफ्जों में बयाँ करना उतना ही मुश्किल है जितना कि हिमालय की चोटी पर चढ़ना.भाषा.साहित्य.संगीत.इतिहास लेखन और सूफी दर्शन के विकास में उनका योगदान समन्दर में बिखरे मोती और सीपियों के माफ़िक है.
वर्ष 1254 में उत्तर प्रदेश के पटियाली जिले में जन्मे हज़रत अमीर खुसरो का असली नाम यमीनुद्दीन मोहम्मद हसन था.उनकी रगों में दौड़ रही यह दो अलग संस्कृतियों का ही कमाल था कि उन्होंने जाति और मजहब से उपर उठ कर उन्होंने हमेशा इंसानियत को ज्यादा अहमियत दी.खुसरो के पिता एक तुर्क थे और माँ सम्भवता ब्रज की थीं.हज़रत अमीर खुसरो की सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी की उन्होंने अपने जीवन में विभिन्न विधाओं को विकसित करने के साथ साथ हिन्दू-मुस्लिम को जोड़ने का भी सफल प्रयास किया.अपने गुरु की मौत का सदमा सहन ना कर पाने कारण हज़रत खुसरो ने 1324 में दुनिया छोड़ दी.
हज़रात अमीर खुसरो विलक्षण और मुख्तलिब प्रतिभा के धनी थे.दस साल की उम्र से ही उन्होंने काव्य रचना शुरू कर दी थी.प्रसिद्ध सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया के वे मुरीदथे.हज़रत खुसरो अपने मुर्शिद से बेपनाह मुहब्बत करते थे.जिसके कारण हीं हज़रत खुसरो अंतिम समय में सूफी हो गए थे .
हजरत अमीर खुसरो की गिनती मध्यकालीन इतिहासकारों में भी की जाती है.वे केकुबाद.मुहम्मद जलालुद्दीन खिलज़ी.अलाउद्दीन खिलज़ी.मुबारक़ शाह और गयासुद्दीन तुगलक़ अंतर्गतशाही सेवा में रहे.इस दौरान उन्होंने पांच दीवानों.ग्यारह मसनवियों.कई गज़लों.क़व्वालियों.दोहों और पहेलियों की रचना की.खंजाय-नुल-फुतूह.तुगलकनामा और तारीखे अलाई उनकी रचना नुह सिपहर से पता चलता ही कि वह सच्चे देशभक्त थे और उन्हें भारतीय होने पर उन्हें बहुत गर्व था.
हजरत अमीर खुसरो कहते हैं कि ''मैंने हिंदुस्तान की तारीफ़ दो कारणों से की है..."अव्वल हिंदुस्तान मेरी जन्म भूमि है...और हम सबका वतन है....वतन से प्यार करना एक अहम फ़र्ज़ है."
हजरत अमीर खुसरो को भारतीय दर्शन और ज्ञान की काफी अच्छी समझ थी.उन्होंने एक जगह लिखा है...''कर के इजादे सिफर दुनिया को जीरक कर दिया......इल्म के दरिया में गोया इक मोती भर दिया.''
उन्होंने फारसी की एक नई शैली विकसित की...जो बाद में सबक-ए-हिंदी यानी हिंदी की शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई.हिंदी साहित्य में हजरत अमीर खुसरो को हिंदी खड़ी बोली का पहला कवि माना जाता है.हजरत अमीर खुसरो ने अपनी रचना में फारसी और हिंदी का बेहतरीन मिश्रण पेश किया-
जिहाले मिस्कीं मकुन तगाफुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
किताबे-हिज्राँ न दारमें - ए- जां
न लेहु काहे लगाय छातियाँ
शबाने हिज्राँ दराज़ चूं जुल्फां
रोज़े वसल्ज़ चूं उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं ना देखूं
तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ
हिंदुस्तान के जन जन में हज़रत अमीर खुसरो की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगता है कि प्रत्येक हिंदी भाषी उनकी पहेलियों से परिचित है.उनकी पहेली की बानगी देखें-
श्याम बरन और दांत अनेक लचकत जैसे नारी
दोनों हाँथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री. (उत्तर-आरी)
संयोग श्रृंगार पर उनकी एक रचना है जिसमें रहस्यवाद की झलक मिलती है- ''खुसरो रैन सुहाग की में जागी पी के संग
तन मोरा मन पीहू का.दोउ भए इक रंग.''
हज़रत अमीर खुसरो कुछ समय के लिए अवध में भी रहे थे.अवधी की मिठास को भी उन्होंने अपने रचनाओं में शामिल किया.खासकर उनकी क़व्वालियों और दोहों की भाषा का मूल आधार अवधी या पूर्वी है-
छाप तिलक तज दीन्ही रे तो से नैना मिला कै
प्रेमबटी का मदवा पिला के मतवारी कर दीन्ही रे तो से नैना मिला कै
हज़रत अमीर खुसरो ने हिंदी में भी ग़ज़लें कहीं- जाना तलब तेरी करूँ,दीगर तलब किसकी करूँ....तेरी जो चिन्ता धरुं इक दिन मिलो तुम आये कर...'खुसरो' कहे! बातें गज़ब दिल में नलाबे कुछ अज़ब.
शाही दरबारों के माहौल में जिन्दगी बिताने के बावजूद हज़रत अमीर खुसरो बुनियादी तौर पर रहस्यवादी ही थे.उनका मानना था कि आत्मा का आंतरिक विकास किसी बाह्य उपलब्धिसे कहीं अधिक महत्त्व रखता है.हज़रत अमीर खुसरो को सितार तबला और ढोलक के अविष्कार का श्रेय जाता है.उन्होंने पहली ग़ज़ल और क़व्वाली भी गयी थी.जिस कारण उन्हेंतूती-ए-हिंद की उपाधि भी गयी.
वह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से बहुत प्रभावित थे.उन्होंने फारसी.अरबी मूल के कई राग जैसे यमन.घोर.आदि को शास्त्रीय संगीत में दाखिल किया.उन्होंने अपने हुनर से हिंदुस्तान साहित्य.संगीत और सूफी दर्शन को एक अलग और बुलंद मुकाम पर पहुँचाया.हज़रत अमीर खुसरो पहले इंसान थे जिन्होंने अपने समय में मुल्कों की दूरियाँ मिटाने के लिए ज़बान और बयान को सशक्त माध्यम बनाया.भाषा और संगीत के जरिये दो धर्मों के लोगों को जोड़ने के लिए उन्होंने ऐसा मार्ग दिखाया.जिसका आज भी अनुसरण किया जा रहा है.उनकी रचनाएँ आज भी लोगों को एक दूसरे को क़रीब लातीं है....जोडती हैं.उनको किसी ख़ास धर्म का बताना उनके हुनर और दर्शन की तौहीन होगी.हज़रत अमीर खुसरो के यहाँ मिली जुलीसंस्कृति पूरी भव्यता के साथ मौजूद है.एक इंसान में के रूप में हज़रत अमीर खुसरो आज भी लोगों के बीच में याद किये जाते है.यह बड़ी बात है कि उनका साहित्य सदियों बाद भीसुना.पढ़ा और गाया जाता है.
हज़रत अमीर खुसरो हिंदुस्तान और सामाजिक सदभाव के सबसे बहतरीन प्रतीक हैं.इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैसे जैसे समाज में घृणा और साम्प्रदायिकता बढ़ती जा रही है....वैसे-वैसे हज़रत अमीर खुसरो की प्रासंगिकता बढती जा रही है.
(लेखक मैनपुरी उत्तर प्रदेश में, एक स्थानीय न्यूज़ चैनल के एडिटर है )
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