(सोमवार /११ अक्टूबर २०१०/ अनंत झा /रांची )
प्रभात खबर के देवघर संस्करण के 11 अक्तूबर के अखबार का पहला पन्ना.हैरतअंगेज,अविश्वनीय या यूँ कह ले सभ्य समाज के मुह पर तमाचा.हम भारतीय खुद के महाशक्ति कहलवाने के लाख दावे भरे लेकिन हमारे दावों की पोल खोलने वाले इस रिपोट को पढकर शायद किसी का भी कलेजा मुंह को आ जाए.हम खुद को लाख ही आधुनिक होने का दावा कर ले लेकिन इस खबर ने हमें इस बात का एहसास करा दिया है कि हमारे अंदर का इंसान मर गया है और मर गयी है हमारी सोच और संवेदना.
यदि किसी बच्चे की माँ मर जाए और उसका बाप ही माँ का हत्यारा हो और वो भी फरार,तो क्या हम और आप उस बच्चे की मानसिक स्थिति को महसूस कर सकते है?अपने माँ की हत्या और अपने बाप की फरारी के इस दंश की कहानी है झारखण्ड राज्य के देवघर जिले के मोहनपुर प्रखंड के गांव की कहानी.बात सिर्फ इतनी नहीं है,इसके आगे शुरू होता है समाज का दंश.माँ को मरे दस दिन ही बीते है की समाज के अगुआ लोगों ने बच्चे को कहा की अब भोज की तेयारी करो.बच्चे ने अपनी स्थिति का रोना रोया तो समाज के लोगों ने उस पर अपनी जमीन बेचने का दवाब बनाया और कहा यदि उसने गाँव भर के लोगो को भोज नहीं खिलाया तो उसकी माँ की आत्मा भटकती रहेगी.
शायद बहुतेरे अख़बार को इसमें कोई मसाला न मिले.शायद यह मुद्दा किसी टेलीविजन चैनल की टीआरपी बढ़ने में सहायक न हो.लेकिन मुद्दा तो है,क्योंकि अभी भी शायद किसी अखबार ने इस बाजारू व्यवस्था के आगे घुटने नहीं टेके है.यह इस बात का भी मिसाल है की पत्रकारिता अभी भी जिन्दा है.छोटे स्तर पर ही सही लेकिन पत्रकारिता अपना धर्म निभा रही है.वातानुकूलित कमरे में बैठकर देश को चलने वालो के समछ यह आवाज भले ही न पहुंचे लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि पत्रकारिता अभी भी जिन्दा है और इन्ही तरह कि खबरों को देखकर प्रभात खबर को सलाम.

(लेखक अनंत झा पिछले एक दशक से झारखंड की पत्रकारिता में सक्रिय हैं.प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों मीडिया में काम करने का अनुभव है. इन दिनों यायावरी कर रहे हैं)
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