Tuesday, October 19, 2010


सौरभ की समीक्षा -- 'आक्रोश'
अच्छी फिल्म है। ज़रूर देखें।

(मंगलवार /19 अक्टूबर 2010/ सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )

आक्रोश आपके भीतर वो सारे इमोशन पैदा करती है जो एक फिल्म को देखकर पैदा होने चाहिए। क्यों न बनें ऐसी फिल्म जिसे देख थोड़ा सोचने को मन करे। सोचें उस फिल्म के बारे में, फसल पैदा करने वाले असल समाज पर ज़ोर देती कहानी के बारे में, कसे हुए हर सीन की बनावट के बारे में और अपने आस पास के बारे में।

फिल्म न तो केवल किसी ऑनर किलिंग के बारे में है और न ही किसी स्टार को चरम पर पहुंचाती है। दर्शक को मज़बूत किरदारों, विश्वसनीय कहानी, एक अलग रफ्तार, मंझी अदाकारी और संवादों के ज़रिए फिल्म से जोड़ती है आक्रोश। यह अहसास करवाती है फिल्म कि किस प्रकार स्टार कलाकार होने के बावजूद वो केवल फिल्म ही है जो याद रह जाती है।

एक्शन का ज़िक्र अलग से। फिल्म का ऐसा पहलू जो लगता है कि हर समय मौजूद है लेकिन असल में है बेहद संतुलित। बेवजह खून की नदियां नहीं बहेंगी फिल्म में। किसी के हाथ लाल नहीं होंगे। किसी क्रूरता को देख न तो हैरत होगी और न ही आंखे बंद करने का अवसर मिलेगा। समय फिल्म के साथ कैसे उड़ चलेगा इसका इल्म फिल्म के अंत में ही संभव है।

सच कहूं तो एक चालाक फिल्म। चालाकी से किसी विषय को उठाने का प्रयास भी किया, अपनी कहानी भी कह दी, तारीफ लायक फिल्म बना डाली। नितीश कतार की हलकी सी याद भी करवाती फिल्म। इस साल 'अतिथि कब जाओगे', 'राजनीति', 'वंस अपॉन ए टाईम' के बाद अजय देवगन को पर्दे पर कमाल दिखाते हुए देखने का एक और मौका। वैसे इस फिल्म को देखने के लिए अजय देवगन का फैन होना ज़रूरी नहीं।

फिल्म में एक एलिमेंट जो पूरी फिल्म में हमेशा छाया रहता है वो है तनाव। तनाव उस कहानी, किरदार, सैटिंग और निर्देशन के ज़रिए। तनाव ही इस फिल्म को रियलिस्टिक थ्रिलर बनाता है और आपको बांध कर रखता है। थोड़ी सी नई किस्म है हिंदी फिल्मो के लिए।

बीच में करीब दस मिनट के लिए फिल्म ज़रूर रास्ते से भटकती सी लगती है पर उसका ज़िक्र ज़रूरी नहीं। फिल्म प्रियदर्शन की है और ऐसी है कि हैरान करती है कि ये कई यादगार और न जाने कितनी भूलने वाली कॉमेडी बना चुके प्रियदर्शन ने बनाई है।

किसी एक प्रांत, किसी एक मुद्दे पर है ये फिल्म ऐसा न सोचें क्योंकि यहां, बिना मज़ा खराब किए मैं इतना बता दूं कि फिल्म एक जांच है, उसका अंजाम है, उस जांच टीम के अनुभव हैं फिल्म में। जांच टीम में अक्षय खन्ना और अजय हैं। जांच कर रहे हैं तीन युवकों के गायब होने की। पता चल रहा है न जाने और कितने जांच लायक विषयों के बारे में। समाज के। तो कुल मिलाकर अपने 2010 के मिलेजुले समाज की सामाजिक थ्रिलर फिल्म। रोचक कैटेगरी। रोचक यह भी कि जांच टीम में अक्षय सीनियर हैं और अजय जूनियर।

प्रियदर्शन के प्रिय परेश रावल फिल्म के अपने किरदार में इस कदर उतर गए हैं कि याद ही नहीं आता कि कभी उन्होंने 'हेरा फेरी' में हमें हंसाया भी था। हालांकि बिपाशा और अजय की जोड़ी रिपीट होने से फिल्म 'अपहरण' की याद ज़रूर हो आती है। इससे पहले कि अगले हफ्ते कोई नागिन मल्लिका 'हिस्स' कर के, कोई जॉन अब्राहम झूठ बोल के, इस फिल्म को पर्दे से हटने के लिए मजबूर करे, आप जल्द सोचें, प्रोग्राम बनाएं।

समाज को दर्शाती या कहें तो उससे दर्शन पाती फिल्म। झलकता भले ही समाज हो फिल्म में लेकिन फिल्म में झलकने वाला समाज, उन्हीं फिल्मों से प्रेरणा पाता है।

तो एक ऐसी फिल्म को जल्दी सिनेमाहॉल में देख लेने की आपसे गुज़ारिश, जिसे देख फिल्मों के दिशाहीन न होने का अहसास होगा। मनोरंजन और रोमांच मिलेगा। दो घंटे के लिए समाज से दूर और फिल्म के ज़रिए खुद का समाज के पास महसूस करेंगे।


(लेखक सौरभ कुमार गुप्ता दिल्ली में एक नेशनल न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं और मीडियामंच के लिए ख़ास तौर से फ़िल्मों की समीक्षा करते हैं . )

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