Monday, December 27, 2010
सौरभ की समीक्षा
तीस मार खां
(सौरभ कुमार गुप्ता /नई दिल्ली )
तवायफ की लुटती इज्ज़त बचाना और तीस मार खां फिल्म को देख तारीफ करना-- दोनों बेकार हैं। छुड़ाना कुत्ते के मुंह से हड्डी और लुटाना इस फिल्म पर अपनी नोटों की गड्डी-- दोनों बेकार हैं।
फिल्म में किसी ने एक्टिंग की होती तो यहां उसका ज़िक्र भी किया जाता लेकिन फराह खान की इस फिल्म सबने केवल ओवर एक्टिंग ही की है। ऐसे में फिल्म की फज़ीहत का मौका छोड़ना गलत होगा। दरअसल फराह खान ने शोर मचाने वाले, भद्दे और बेतुके सिनेमा की मिसाल कायम की है इस फिल्म में। फिल्म आपको मनोरंजन नहीं, इमोशन नहीं, आंसू नहीं, ख़ुशी नहीं बल्कि दर्द देती है, सिरदर्द। सिनेमा हाल से बाहर निकल ऐसा महसूस होता है कि पिछले सवा दो घंटे आपने अपने सिर पर हथौड़े बजवाए हैं।
ऐसा हर बार संभव नहीं कि सिनेमा और समाज दोनों अलग दिशा में चलें और सिनेमा को सफलता मिले। समाज थोड़ा जागरूक, चतुर, तेज़, अराजकता से भरा होने की दिशा में चले और सिनेमा में मौजूद किरदार असलियत से कटे, बेवकूफ, भटके हुए और भटकाने वाले नज़र आएं।
फिल्म की कहानी किस दुनिया, किस युग के सपने को साकार करती है यह बात यहां बयां कर पाना इसलिए मुकिल है क्योंकि इसका जवाब खुद बनानेवालों के पास भी शायद ही हो। बनाने वालों ने केवल कुछ नामी लोग जुटा लिए और तय कर लिया कि अब बस इनके साथ कुछ न कुछ आड़ी तिरछी फिल्म बना डालनी है। ऐसा लगा कि स्क्रिप्ट लिखने का सामूहिक जिम्मा करीब छः लोगों ने उठा लिया और अपने अपने हिस्से के पन्ने लिख के ले आए, फिर उन्हें आपस में मिला दिया। फिल्मी दुनिया, किरदारों की पैरोडी फिल्म के कुछ हिस्से में डालना अलग बात है बजाय कि पूरी फिल्म को पैरोडी बना देने के।
गलती अपनी है जो इस फिल्म को फिल्मी पैमाने पर आंक रहे हैं। जनहित में ऐसा मान लेते हैं कि ये एक वीडियो फुटेज है जिसमें थोड़ा नहीं, बहुत गीत संगीत है और यह ज्यों का त्यों दर्शक के लिए परोस दिया गया है। फराह खान ने अपने घर रिश्तेदारी में मौजूद हर छिपी प्रतिभा को मौका दिया है। इतने प्रमोशन और जवानी का तकाजा है कि फिल्म के बारे में खुलेआम बुराई नहीं करनी है। हर राह चलते आते जाते आदमी को रोक कर आगाह नहीं करना है कि भाई फिल्म मत देखना।
इस फिल्म समीक्षा पर आप अपनी प्रतिक्रिया सौरभ कुमार गुप्ता के फेसबुक एकाउंट पर जाकर दे सकते हैं -
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