Sunday, November 20, 2011

भोजपुरी सिनेमा में नयी पहल

फ़ज़ल इमाम मल्लिक

नींद देर से खुली। घड़ी देखी दिन के क़रीब पौने बारह बजे थे। यानी कमरे पर आने के बाद क़रीब पांच घंटे तक सो चुका था। हालांकि एक अलसायापन ज़रूर पसरा था शरीर के पोर-पोर में, लेकिन दफ्Þतर जाना था इसलिए तैयार होने के लिए बिस्तर छोड़ा। सफ़र के दौरान रात भर ट्रेन में था। दिवाली की छुट्टियों के दौरान देहरादून में था। मनु और सुंबुल शिमला से आई हुई थीं। चार-पांच दिन किस तरह बीत गए पता ही नहीं चला था। देहरादून से ट्रेन क़रीब साढ़े ग्यारह बजे छूटती है और हम जैसे रात में जागने वाले लोगों को जब नींद आने लगती है तब गाड़ी नई दिल्ली पहुंच जाती है। देहरादून जाते वक्Þत भी ऐसा ही कुछ होता है। अच्छी बात यह है कि यह ट्रेन शायद ही कभी लेट होती है। यों तो एसी डब्बे में अमूमन लोग एक-दूसरे से कम ही बोलते-बतियाते हैं, लेकिन इस ट्रेन में तो बातचीत की गुंजाइश भी नहीं के बराबर होती है। बातचीत तो जाने दें कभी-कभी तो यह भी पता नहीं चलता कि अपना सहयात्री कौन है। ट्रेन में पांव धरते ही पता चलता है कि या तो यात्री बिस्तर लगा कर सो गए हैं या फिर सोने की तैयारी में जुटे हैं। ऐसे में कहां किसको, किससे बात करने की फुर्सत होती है भला। सुबह-सवेरे क़रीब सवा पांच बजे ट्रेन ने दिल्ली पहुंचा दिया था। कमरे पर पहुंचा तो छह बजे थे। आंखों में नींद उतरी हुई तो थी ही इसलिए बस मुंह-हाथ धोया और सो गया।
बिस्तर छोड़ने से पहले मोबाइल पर नज़र डाली। कई मिस्ड कॉल थीं। उनमें ही किरणकांत भाई का नंबर भी था। किरणकांत भाई यानी अपने किरणकांत वर्मा। रंगकर्म से सरोकार रखने वाले किरणकांत वर्मा का ताल्लुक़ पटना से है। इन दिनों पटना-मुंबई एक किए हुए हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि मुंबई उनका नया ठिकाना है। कई साल पहले वे मुंबई गए थे लेकिन कइयों की तरह वे मुंबई के ही हो कर नहीं रह गए। बल्कि पटना उनके सरोकारों में आज भी उसी तरह बसा है जैसे पहले था। मुंबई में उत्तर भारतीय जैसे नारों के बीच ही किरणकांत वर्मा ने अपनी जमीन तलाशी और फिर मज़बूती से अपने क़दम जमाए। ऐसा करते हुए उन्होंने न तो चोला बदला और न बोली। ठेठ और ख़ालिस बिहारी अंदाज में मुंबई में भी अपनी पहचान बनाई। मुंबई के ‘वीर सैनिकों’ के बीच मराठी दोस्तों और चाहने वालों के साथ मिल कर उन्होंने फिल्म जगत में पांव धरा। लेकिन किरणकांत भाई को अपनी सीमाओं का पता था इसलिए उन्होंने हिंदी की बजाय भोजपुरी फिल्में बनाने की ठानी। या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने भोजपुरी का चुनाव जानबूझ कर किया। भोजपुरी में जिस तरह की फिल्में बन रही थीं उससे कुछ अलग करने की उन्होंने ठान रखी थी। हालांकि ऐसा करना किसी आग के दरिया से गुज़रने जैसा ही है लेकिन बरसों तक पटना में जिस तरह ‘दश्त की सैयाही’ में उन्होंने गुज़ारे वहां इस तरह के आग के दरिया भला उन्हें कब और कैसे रोक पाते। हालांकि रंगमंच उनका पहला शौक़ है और वे अपनी बेहतरीन रंगमंचीय प्रस्तुतियों से पटना में बतौर निर्देशक अपनी अलग पहचान बनाई थी। लेकिन फिल्मों के निर्माण से वे अनजान नहीं थी। रिचर्ड एटनबरो जिन दिनों ‘गांधी’ फिल्म बना रहे थे तो उन्हें उनके साथ काम करने का मौका मिला था। पटना और उसके आसपास ‘गांधी’ की शूटिंग हुई थी और किरणकांत वर्मा उनके साथ काम करते हुए उनसे उन अनुभवों को भी सीखते रहे जो उन्हें बाद में काम आए। फिर शत्रुघ्न सिन्हा की फिल्म ‘कालका’ के साथ भी उनका जुड़ाव रहा। इस लिहाज़ से फिÞल्म का मैदान उनके लिए बहुत अनजान नहीं था। लेकिन मुंबई और भोजपुरी फिल्मों की दुनिया उनके लिए थोड़ी अनचीन्ही थी। लेकिन कुछ अच्छा और बेहतर करने का जनून नेकिरणकांत वर्मा के काम आया और वे इस मैदान में लंगोटी बांध कर कूद पड़े। ज़ाहिर है कि उनकी लगन और कुछ संबंध काम आए और किरणकांत भाई मुंबई में रम गए। लेकिन उतना नहीं कि पटना छूट जाए। पटना उनकी नज़र से ज़रूर दूर रहा लेकिन दिल में हमेशा बसा रहा। मुंबई में बिना संघर्ष के कुछ मिलता नहीं है। थोड़ा बहुत संघर्ष उन्हें भी करना पड़ा। लेकिन एक बार गाड़ी पटरी पर आई तो सब कुछ ठीक होता चला गया।
किरणकांत भाई ने ‘बबुआ हमार’ और ‘कजरी’ जैसी बेहतरीन फ़िल्में दी हैं। सिनेमाई भाषा में कहें तो बाक्स आफ़िस पर ये दोनों फ़िल्में हिट रहीं थीं। हालांकि उन्होंने ‘हक क लड़ाई’ फिल्म का निर्देशन भी किया लेकिन यह फिल्म सफल नहीं रही थी। इस फिल्म की असफलता की कहानी बयान करते हुए किरणकांत वर्मा के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देता है। बल्कि वे ठहाका लगाते हैं। उनकी हंसी और ठहाका ही उनकी बड़ी पूंजी हमेशा से रही है। और जहां तक मेरा मानना है इसी पूंजी ने उन्हें हमेशा ही संबल और ऊर्जा दिया है।
लेकिन किरणकांत वर्मा की पहचान फिल्में नहीं हैं। उनकी असल पूंजी या ताक़त तो उनका थिएटर ही है। अपनी निर्देशकीय क्षमता और बेहतरीन अभिनय के बूते उन्होंने पटना रंगमंच को न सिर्फ दिशा दी बल्कि उसे एक मुक़ाम तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। क़रीब पच्चीस-तीस साल पहले पटना में थिएटर देश भर में अपनी अलग पहचान के साथ स्थापित था। बेहतरीन रंग प्रस्तुतियों को लेकर एक-दूसरे से बेहतर करने कि होड़ रहती थी। किसी को उठाने और किसी को गिराने का खेल भी ख़ूब चलता था। लेकिन अच्छा से अच्छा नाटक करना रंग निर्देशकों की प्राथमिकता में था। हालांकि वह ऐसा दौर था जहां अख़बारों के पन्ने नाटक-थिएटर के लिए नहीं होते थे। संपर्कों और संबंधों की बुनियाद पर कहीं कोई छोटी सी ख़बर छप गई वही बहुत होती थी और उसी छपे हुए को किसी गीता-क़ुरान की तरह सीने से चिपका कर रंगकर्मी घूमा करता था और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को दिखा कर ख़ुश होता था। तब रंगमंच को लेकर लोगों में उत्साह तो था लेकिन आम लोगों के लिए यह ‘नौटंकी’ से ज़्यादा कुछ नहीं था और नाटक-नौटंकी में काम करने वाले अपने लोगों में भी ‘नचनिया’ ही कहलाते थे। लेकिन इन सबके बावजूद पटना में नाटक हो रहे थे और ख़ूब हो रहे थे। किरणकांत भाई भी उनमें से ही एक थे। अपनी रंग संस्था ‘अंकुर’ के ज़रिए पटना रंगमंच को लगातार सक्रिय रखे हुए थे। महीनों तक रिहर्सल करने के बाद जब उन्हें पूरी तसल्ली हो जाती कि अब सब कुछ ठीक है और नाटक के पात्र अपनी-अपनी भूमिका निभा पाएंगे तब ही वे अपनी प्रस्तुति के साथ लोगों के सामने आते। किरणकांत भाई के साथ अक्सर बैठकी होती। रिहर्सल के दौरान भी साथ होता और कभी-कभी कविताई को लेकर भी चर्चा होती। वे कविताएं भी लिखते हैं लेकिन उनकी पहचान एक रंगकर्मी के तौर पर ही होती थी। उन्होंने रंगमंच पर कुछ अद्भुत प्रयोग किए। ‘गिद्ध’ ‘खेला पोलमपुर’ ‘बड़ी बुआजी’ ‘दुलारी बाई’ ‘गुलेल’ ‘कर्फ्यू’ उनकी बेहतरीन रंग प्रस्तुतियां थीं जिनमें उन्होंने कई स्तर पर प्रयोग किए थे। प्रकाश, संगीत और मंच सज्जा के साथ-साथ दूसरे मंचीय प्रयोग उन्हें बेहतरीन रंग निर्देशकों की कतार में ला खड़ा करता है। हालांकि दूसरों की तरह उन्होंने कभी इस बात को लेकर न तो बड़ी-बड़ी बातें कीं और न ही इसका ढिंढोरा पीटा। बड़बोलपन उनमें न तब था और न ही अब है। इसलिए किरणकांत वर्मा दूसरों से अलग हैं।
बीच में क़रीब दस-पंद्रह साल तक उनसे संपर्क न के बराबर रहा। वे मुंबई में फिल्मों के ज़रिए कुछ बेहतर करने की कोशिश में जुटे थे और मैं पत्रकारिता में। न उनके पास मेरा पता-ठिकाना था और न ही मेरे पास उनका। लेकिन वह तो भला हो शंकर आजाद का, जो अक्सर इसी तरह पुराने मित्रों को मिलाने का बहाना बन जाते हैं। शंकर आज़ाद भी अपना घर जला कर दूसरों को रोशनी देने का काम ही ज्Þयादा करते हैं इसलिए उनसे ख़ूब निभती है। दुख और सुख दोनों में ही शंकर बेतरह साथ देते हैं। शायद इसकी वजह नाम का भी प्रभाव कहा जा सकता है। राजनीति से उनका सरोकार है। कइयों को विधायक-सांसद और मंत्री बनाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन जब ख़ुद कुछ बनने का मौक़ा आया तो विधान परषिद का मिला टिकट किसी दूसरे को थमा दिया। शंकर आज़ाद के लिए ही किसी की पंक्तियां ज़ेहन में गूंजती हैं ‘अंधेरे मांगने आए थे रोशनी की भीख, हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते’। सालों पहले शंकर विधान परिषद पहुंच गए होते तो फिर वे अब तक किसी बड़े पद पर होते लेकिन शंकर तो शंकर ठहरे और आज़ाद भी। उनके किसी साथी ने कहा कि चुनाव वे लड़ना चाहते हैं तो बस उन्होंने बिना कुछ सोचे-विचारे उन्हें टिकट थमा दिया। तो शंकर आज़ाद की वजह से ही अचानक किरणकांत वर्मा से मुलाक़ात हुई और बिसरा गईं पुरानी यादें पूरी शिद्दत से दस्तक दे कर सामने आर्इं और पटना का वह रंगमंच नज़रों के सामने गूम गया।
किरणकांत वर्मा को फ़ोन करने की सोच ही रहा था कि फिर उनका फ़ोन आ गया। छूटते ही कहा- ‘काफ़ी देर से फ़ोन कर रहा था, कहां थे’। मैंने उन्हें वजह बताई। उन्होंने कहा कि ‘मैं अभी-अभी दिल्ली पहुंचा हूं। भोजपुरी में मैंने ‘देवदास’ बनाई है शाम में उसका प्रदर्शन फिल्म डिवीजन के प्रेक्षागृह में है। तुम्हें आना है।’
‘क्या कहा भोजपुरी में देवदास’ मैं थोड़ा अविश्वास की स्थिति में था। दूसरी तरफ़ से उन्होंने आश्वस्त किया कि मैंने ठीक ही सुना है। उन्होंने भोजपुरी में देवदास को ‘हमार देवदास’ नाम से बनाई है। यों तो ‘देवदास’ को लेकर समय-समय पर कई भाषाओं में फिल्म बनाई जा चुकी है। हिंदी में ही अब तक तीन बार इस पर फ़्ल्मि बन चुकी हैं। लेकिन भोजपुरी में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए भी नहीं क्योंकि भोजपुरी फ़िल्मों का जो बाज़ार है उसमें ‘देवदास’ की कहानी कहीं फ़िट नहीं बैठती है। लेकिन किरणकांत के जनून को मैं जानता था और पता था कि वे एक बार जो ठान लेते हैं उसे पूरा कर ही दम लेते हैं। इसलिए उनकी यह फ़िल्म देखने को लेकर एक अलग तरह का उत्साह था।
इसी उत्साह के साथ तय समय से थोड़ी देर में हाल पर पहुंचा। किरणकांत वर्मा बाहर ही मिल गए। वे लहक कर मिले और कहा पहले अंदर जाओ फ़िल्म शुरू हो चुकी है। फ़िल्म ख़त्म हुई तो इस बात का सकून था कि किरणकांत वर्मा ने भोजपुरी सिनेमा में एक नई और बड़ी लकीर खींचने की हिम्मत जुटाई है। हिंदी या दूसरी भाषाओं में बनी फ़िल्मों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, की जानी भी नहीं चाहिए। सच यह भी है कि ‘हमार देवदास’ कई ऐतबार से बहुत अच्छी फ़िल्म नहीं है। ख़ास कर तकनीकी पक्ष और कैमरे का काम बहुत ही साधारण है लेकिन यह फ़िल्म इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भोजपुरी में जिस तरह की फ़िल्में बन रही हैं और जिस तरह की अशलीलता परोसी जा रही है, ‘हमार देवदास’ इससे अलग है। यह बात इस फ़िल्म को महत्त्वपूर्ण बनाता है और किरणकांत वर्मा को भी। आज कितने लोग हैं जो धारा के ख़िलाफ़ चलते हैं और वह भी बिना किसी झिझक के। किरणकांत वर्मा ने ‘हमार देवदास’ बना कर धारा ही नहीं बाज़ार के ख़िलाफ़ भी चलने की कोशिश की है। फ़िल्म में यों तो भोजपुरी सिनेमा के सुपर स्टार रवि किशन हैं लेकिन पटना के रंगमंच के कलाकारों को देखना अच्छा लगता है। सुमन कुमार, आर. नरेंद्र और हरिशरण पटना रंगमंच का एक जाना-पहचाना नाम रहा है। आज भी वे सक्रिय हें यह देख कर अच्छा लगा।
इस दौर में जब थिएटर से युवाओं का मोह लगभग ख़त्म-सा हो गया है, सुमन कुमार या हरिशरण अगर अभिनय में सक्रिय हैं तो यह बड़ी बात है। ख़ुद किरणकांत वर्मा थिएटर को लेकर अब बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं है। उनका कहना है कि अब सब कुछ इंस्टैंट हो चुका है। नई पीढ़ी ‘दो मिनट में नूडूल्स’ खाने कि आदी हो चुकी है। कोई मेहनत करना नहीं चाहता। पहले हम दो-तीन महीने तक रिहर्सल करते थे। आज के युवाओं में इतना धैर्य नहीं है। वे आज आते हैं और अगले दिन स्टार बनने का सपना पिरोए थिएटर को बाय-बाय कर फ़िल्मों का रुख़ करते हैं। ऐसे में मेरे जैसे लोगों के लिए थिएटर करना मुमकिन नहीं है। मैं तुरंत-फुरंत के थिएटर पर यक़ीन नहीं करता। ‘हमार देवदास’ के बाद किरणकांत वर्मा अब ‘मुगÞले-आज़म’ को भोजपुरी में बनाने पर विचार कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि किरणकांत वर्मा अपने इस सपने को भी परदे पर उतार कर भोजपुरी सिनेमा में एक और बड़ी लकीर खींचेंगे। तब तक ‘हमार देवदास’ में उस भोजपुरी समाज को देखने-समझने की कोशिश करें जिसे कला और संस्कृति की समृद्ध विरासत मिली है, जिस विरासत को भोजपुरी सिनेमा ने बेतरह नुकसान पहुँचाया है.

(लेखक नई दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकर है . उनसे fazalmallick@gmail.com जरिये संपर्क किया जा सकता है .)

Saturday, October 1, 2011

दूसरों से अलग हैं दिव्या दत्ता
फ़ज़ल इमाम मल्लिक

ईद की छुट्टियों के बाद लौटा ही था कि सुकृति कालरा का मेल मिला। सुकृति ने मेल के जÞिरए मुझे जानकारी दी थी कि दिव्या दत्ता दिल्ली आने वाली हैं और वे कुछ लोगों से मिलना चाहती हैं। फिर सुकृति से फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि दिव्य दत्ता मनोरंजन चैनल मैक्स के लिए एक टीवी कार्यक्रम की मेजबानी करने जा रही हैं। फ़िल्मों को आधार बना कर पेश किए जाने वाले कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रा शॉट्स चैलेंज’ की होस्ट दिव्या होंगी। यक़ीनन इस जानकारी ने उत्सुकता बढ़ाई थी। दिव्या को छोटे परदे पर इस तरह के कार्यक्रम की मेज़बानी करते देखना एक अलग तरह का अनुभव होगा, इसलिए नहीं कि वे फ़िल्मों से जुड़ी हैं बल्कि इसलिए कि वे एक बेहतरीन अदाकारा हैं और अपने अभिनय से लोगों को उन्होंने क़याल भी बनाया है। भले ही वे सहायक किरदारों में नज़र आती रहीं हों लेकिन अपने हर किरदार को बेहतरीन ढंग से उन्होंने जिया है और अपने अभिनय से फ़िल्म को वुसअत भी दी। वे ख़ूबूसरत तो हैं ही उतनी ही अच्छी उनकी आवाज़ है जो उनके अभिनय को लोगों तक बेहतरीन ढंग से संपे्रषित करती है।
दिव्या दत्ता का नाम सामने आते ही उनके कई चेहरे ज़ेहन में कौंधने लगते हैं। कई फ़िल्में फ्लैशबैक में नज़रों के सामने से गुज़र जाती हैं। एक के बाद दूसरा चरित्र लेकिन इन चरित्रों के बावजूद सामने सिफर्Þ एक नाम रह जाता है एक चुलबुली और खिलंडरी सी अदाकारा दिव्या दत्ता का। परदे पर उन्हें देखना बराबर ही सुखद रहा क्योंकि उनके अभिनय में एक अलग तरह की ताज़गी हमेशा ही दिखाई देती है। इसलिए इस न्योते पर मैंने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा डाली। पत्रकारिता के लंबे करिअर में फिल्म, खेल, मनोरंजन, कला, साहित्य से जुड़ी हस्तियों से मिलने का मौक़ा अक्सर ही मिलता रहता है। यह बात अलग है कि फ़िल्म से जुड़ी शख़्सियतों ने मुझे उतना प्रभावित कभी नहीं किया जितना कला, खेल या साहित्य से जुड़े लोगों ने किया। इसके बावजूद दिलीप कुमार, अमरीश पुरी, ए.के. हंगल, शबाना आज़मी, मिथुन चक्रवर्ती, सुशांत सिंह से मिलना और उनसे बातचीत करना एक नए अनुभव से गुज़रने जैसा था। दिव्या दत्ता को लेकर भी मेरे अंदर जो तस्वीर उभर रही थी वह कुछ-कुछ इसी तरह की थी। इसलिए दिव्या दत्ता से मुलाक़ात को लेकर एक उत्सुकता थी। सुकृति ने तय समय पर गाड़ी भी भिजवा दी थी लेकिन रास्ते में भीड़भाड़ काफ़ी थी, इसलिए तय समय से क़रीब पंद्रह-बीस मिनट देर से होटल पहुंचा। वहां कार्यक्रम को लेकर किसी तरह की गहमागहमी नहीं थी जो अमूमन फ़िल्मवालों को लेकर रहती है। मुझे कुछ अजीब लगा। रिस्पेशन पर पूछताछ की तो पता चला कि यहां कोई कार्यक्रम नहीं है। होटल के बैंक्वेट हाल में काम चल रहा था। एक पल को सोचा कहीं मैं ग़लत जगह तो नहीं आ गया लेकिन सुकृति ने जो मेल किया था उसमें तो यहां का ज़िक्र ही था। इसलिए बिना देर किए सुकृति को फ़ोन लगाया। तभी वे लॉबी में ही दिख गर्इं। तब तक उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी। वे अपनी दो और सहयोगियों के साथ वहां मौजूद थीं। उन्होंने पहले मेरी मुलाक़ात उनसे कराई और फिर बताया कि कार्यक्रम में थोड़ा विलंब है। यों भी फिÞल्मवालों के कार्यक्रम देर से ही शुरू होते हैं इसलिए मैं आशवस्त था कि मुझे देर नहीं हुई है और सुकृति ने मेरी बात की तसदीक़ भी कर दी। उन्होंने बताया कि दिव्या थोड़ी देर से पहुंची हैं। वे कार्यक्रम के सिलसिले में अपने गृह राज्य पंजाब में थीं। उन्हें दूसरे दिन सुबह की फ्Þलाइट से लखनऊ जाना है इसलिए एअरपोर्ट के पास के होटल में उनसे मिलने का कार्यक्रम रखा गया। लेकिन हैरत इस बात को लेकर हुई कि उनसे मिलने वालों में कुल जमा चार लोग ही थे। फ़िल्मों पर कभी-कभार लिखने की वजह से उनमें से एक-दो लोगों से मेरी मुलाक़ात थी। लेकिन हैरत इस बत पर मुझे थी कि अमूमन फिÞल्मवाले अपनी छवि को लेकर बेतरह संवेदनशील होते हैं और उनके इर्दगिर्द फ़ोटोग्राफ़रों की एक बड़ी भीड़ होती है। कैमरों के फ्Þलशलाइटों की चमक की उन्हें आदत होती है लेकिन यहां तो कहीं कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। थोड़ी देर बाद ही मैक्स चैनल की भारती काबरे आर्इं और उन्होंने दुआ-सलाम के बाद बताया कि पांच-दस मिनट के बाद दिव्या हमारे साथ होंगीं। भारती अख़बारों से जुड़ी बातों की जानकारी लेती रहीं। उनसे बातचीत हो रही थी कि अचानक दिव्या आ खड़ी हुईं। बिना किसी तामझाम के। न बाउंसर, न बाडीगार्ड न कैमरों की चमक और न ही भीड़ से उन्हें दूर रखने की कोशिश करते लोग। अपने पास अचानक उन्हें देख कर लगा कि अपने घर की कोई लड़की है। उन्हें देखने के बाद लगा ही नहीं कि उनका ताल्लुक़ फ़िल्मों से भी हो सकता है। पूरी आस्तीन की छींटेदार क़मीज़ और जिंस की पैंट। क़मीज़ का रंग भी सोबर, हल्के फ़िरोज़ी रंग पर उजले-उजले छोटे फूल। उन्हें इस तरह अपने पास खड़ा देख कर मैं कह बैठा- ‘आप तो बहुत अपनी-अपनी लगती है, जैसे अपने घर की कोई लड़की’। वे हौले से हंसीं और कहा- ‘हां, मैं तो हूं ही आपके घर की।’
और इस एक जुमले ने ही दिव्या की पूरी शख़्सियत को हमारे सामने रख दिया था। दिव्या फिÞ ल्मों में काम करते हुए भी दूसरों से अलग थीं। ठीक है कि वे फ़िल्मों में मुख्य किरदार नहीं निभाती थीं लेकिन अपने किरदारों के साथ वे जीतीं थीं इसलिए उन्होंने जितनी भी फिÞल्में कीं, उनमें अलग-अलग किरदारों में नज़र आर्इं। ‘वीरज़ारा’ ‘वेलकम टू सजन्नपुर’ ‘दिल्ली-6’ ‘सिलसिले’ ‘बाग़बां’ ‘अग्निपंख’ ‘आजा नच ले’ ‘उमराव जान’ ‘यू मी और हम’ सहित दर्जनों फ़िल्म में काम करने वाली दिव्या को ‘वीरज़ारा’ की शन्नो ने पहचान दिलाई तो ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की विंध्या ने उसे विस्तार दिया और ‘दिल्ली-6’ की जलेबी ने उनके अभिनय को नई ऊंचाई पर ला खड़ा किया। ज़ाहिर है कि हर फ़िल्म में अलग-अलग किरदारों में दिखाई देने वाली दिव्या अपने किरदारों को पूरी तरह जीने की कोशिश करती हैं। ‘चेहरे’ और ‘ज़िला ग़ाज़ियाबाद’ इस विस्तार को आगे ले जाता है। ‘दिल्ली-6’ और ‘वीरज़ारा’ के लिए तो उन्हें सहायक भूमिका के लिए पुरस्कार भी मिला है लेकिन देश में पुरस्कारों की जो राजनीति और गणित है दिव्या के अभिनय को उस पैमाने से नहीं देखा जा सकता क्योंकि दिव्या ने अपने किरदारों को जो ऊंचाई दी है वह इन पुरस्कारों से कहीं आगे की चीज़ है। इसलिए उस शाम उन्हें अपने बीच इस तरह पाना एक हैरत से भर गया।
वहीं खड़े-खड़े औपचारिक बातचीत होती है। फिर उन्हें बताता हूं कि आपसे मुलाक़ात के लिए आ रहा था तो बेटी का फ़ोन आया था। उसे जब बताया कि आपसे मिलने आ रहा हूं तो उसने छुटते ही कहा था ‘आप वीरज़ारा की शन्नो से मिलने जा रहे हैं’। दिव्या यह सुन कर हंसीं और कहा-मुझे शन्नो के तौर पर ही ज्Þयादर लोग जानते हैं। आगे की बात होती इससे पहले ही मैक्स के कार्यकारी उपाध्यक्ष नीरज व्यास ने कहा कि क्यों नहीं हमलोग खाने की मेज़ पर ही बातचीत करें। हम सभी रेस्तरां की तरफ बढ़ गए। वहां टेबल पहले से ही रिजर्व था। हम कुल जमा सात लोग थे। गोलाकार टेबल पर हम बैठे ही थे कि मैक्स के वरिष्ठ उपाध्यक्ष गौरव सेठ भी आ गए। खाने वैगरह के बारे में भारती ने हम लोगों से पूछा तो मैंने उन्हें अपनी पसंद से चीजें मंगवाने की छूट दे दी। भारती ने इतना ज़रूर पूछा कि हम वेजेटेरियन खाना पसंद करेंगे या नानवेजेटेरियन। भारती को हमने बताया कि नानवेजेटेरियन खाना ही पसंद करेंगे। भारती ने यही सवाल दिव्या से भी किया और किसी बच्चे की तरह उन्होंने कहा कि आज तो वे भी नानवेज ही खाएंगी।
आर्डर वग़ैरह देने की ज़िम्मेदारी भारती निभा रहीं थीं। इसलिए हम दिव्या के साथ बातचीत में मशग़ूल हो गए। बातचीत के केंद्र में दिव्या और फ़िल्में ही थीं। दिव्या को फ़िल्मों में अदाकारी करते हुए लंबा अरसा बीत गया है। कई यादगार फ़िल्में उन्होंने की। फ़िल्मों में काम करते हुए कई खट्टे-मीठे अनुभव उन्हें हुए। अपने किरदारों को उन्होंने बेहतरीन ढंग से जीने की कोशिश की। वे बेलौस ढंग से बात करती हैं। बिना किसी पसोपेश के कहती हैं, मेरी वजह से फिल्में हिट नहीं होतीं। फ़िल्में कामयाब होती हैं तो बस उसका श्रेय चार-पांच अदाकारों को ही जाता है। सच कहूं तो नायिकाओं की वजह से भी फ़िल्में हिट नहीं होतीं। कामयाबी की गारंटी हीरो ही होता है। एक कामयाब हीरो के साथ किसी भी नई लड़की को लेकर फिÞल्म बना लें, वह कामयाब हो सकती है लेकिन नायिकाओं के साथ ऐसी बात नहीं है। जब नायिकाएं कामयाबी की गारंटी नहीं होतीं तो फिर हम किसी फ़िल्म को कामयाब तो कर ही नहीं सकते। तसल्ली इस बात की होती है कि हमें जो काम करने को मिला उसे बेहतर ढंग से निभा दिया। छोटे परदे पर अपने नए कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रा शाट्स चैलेंज’ को लेकर उत्साहित दिखीं दिव्या। इस कार्यक्रम में फ़िल्मों से जुड़े सवालों का जवाब प्रतियोगियों को देना होता है। वे बताती हैं- यक़ीन करें ढेरों ऐसी बातें इस दौरान मुझे पता चलीं जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी, जबकि मेरा ताल्लुकÞ फ़िल्मों से रहा है। मुझे बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला है इस दौरान। दरअसल यह सीखना ही जीवन में लगा रहता है।
इस बीच वेटर पहले कोल्ड ड्रिंक्स और जूस रख गए थे। थोड़ी देर बाद ही कई तरह के कबाब हमारे सामने थे। शामी कबाब, टंगरी कबाब, चिकन टिक्का, मटन सीख़ कबाब और झींगा का कबाब वेटर हमारे प्लेट में एक-एक कर डाल गए। दिव्या के साथ बातें भी जारी थीं और कबाबों का मज़ा भी हम ले रहे थे। कबाब जितने लज़ीज़ थे दिव्या की बातें उतनी ही दिलचस्प। दिव्या फ़िल्मों में निभाए अपने किरदारों से बेतरह संतुष्ट दिखीं। एक कलाकार के तौर पर उन्होंने अच्छे किरदारों में बेहतरीन अभिनय किया और उनके चेहरे पर संतोष की इबारत साफ़ पढ़ी जा सकती थी। अच्छी बात यह है कि उन्होंने एक जैसे किरदार दूसरी फ़िल्मों में नहीं निभाए। वे बताती हैं मुझे आॅफ़र तो मिले लेकिन मैंने मना कर दिया। ‘वीरज़ारा’ और ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ के किरदारों को वे बेहतरीन मानती हैं। भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर बनाई गई फ़िल्म ‘वीरज़ारा’ में शन्नो को किरदार को वे अपने दिल के बहुत पास मानती हैं। दिव्या कहती हैं इसकी एक वजह तो यह भी हो सकती है कि हम जिस इलाक़े से आते हैं वहां लोगों ने बंटवारे का दर्द देखा है। छुटपन से ही बंटवारे की कहानी सुनती रहती थी इसलिए यह किरदार मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा-सा बन गया। स्कूल और कॉलेज के दिनों में दिव्या ने नाटकों में भी काम किया। वे साफ़ कहती हैं लोग यह समझते हैं कि मैंने एनएसडी से अभिनय की तालीम हासिल की है लेकिन ऐसा नहीं है। स्टेज से मेरा रिश्ता कॉलेज औक स्कूल के दिनों में रहा है और शुरुआती दौर में मैंने जो अभिनय किया वह फ़िल्मों में काम आया। दिव्या साफ़गोई से अपनी बातें बता रहीं थीं और कबाब का लुत्फ़ भी ले रहीं थीं। कबाबों के बीच ही दिव्या ने कहा कि फिल्मों में वे इसलिए नहीं आर्इं हैं कि एक तरह के किरदार निभाती रहीं बल्कि वे इसलिए आर्इं हैं कि हर बार कुछ नया और अलग करें। वे कहती हैं ‘ फ़िल्मों में मैं आई ही इसलिए हूं कि आफबीट फ़िल्मों में काम करूं और इस मामले में थोड़ी ख़ुशक़िस्मत भी रहीं हूं कि मुझे इस तरह की भूमिका मिली’। दिव्या की फ़िल्में इस बात की तसदीक़ भी करती हैं। हर फ़िल्में में अलग किरदार और हर किरदार में ख़ुद को ढाल लेना दिव्या के अभिनय की ख़ूबी कही जाएगी। इस बीच सिनेमा से जुड़ी दूसरी बातें होती रहीं। फ़िल्मों के वर्तमान ट्रेंड से लेकर कॉमेडी के नाम पर अशलीलता परोसे जाने पर चर्चा हुई। अच्छी और ख़राब फ़िल्मों का ज़िक्र भी हुआ। हम बिना किसी ख़लल के आराम से बातें कर रहे थे। दिव्या को बतौर अभिनेत्री उस रेस्तरां में किसी ने नहीं पहचाना था इसलिए न तो आॅटोग्रॉफ लेने वालों की भीड़ लगी और न ही उनके साथ फोटो खिंचवाने की चाहत रखने वाले उनके पास आए। एक आम सी दिखने वाली लड़की ही लोगों ने समझा होगा उन्हें और यह हमारे लिए भी तसल्ली भरी बात रही। हम आराम से खाते भी रहे और बातें भी करते रहे।
कबाबों का दौर ख़त्म हो चुका था। वेटरों ने खाना परोसना शुरू किया। कुछ दाल, कुछ सब्ज़ी और रोटी। कबाबों का ज़ायक़ा अब भी बना हुआ था। दाल, रोटी और सब्ज़ी के अलावा मटन का बना हुआ कोई व्यंजन बैरे ने परोसा। इस बीच मैंने दिव्या से पूछा था कि आपको किस तरह की फ़िल्में पसंद हैं तो दिव्या का जवाब था-मुझे बसु चटर्जी की फ़िल्में बहुत पंसद आती हैं और आज भी उन्हें देखती हूं। बसु चटर्जी की फ़िल्मों का जवाब नहीं, हल्की-फुलकी लेकिन जीवन से जुड़ी हुई। फिर गुलज़ार साहब की फिÞल्में हैं। ‘मौसम’ मेरी पसंदीदा फिÞल्मों में से है। वे ख़ामोश होती ही हैं कि मैं अगला सवाल करता हूं- और किन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने आपको प्रभावित किया। दिव्या मुस्कुराती हैं फिर जवाब देती हैं- ‘अभिनेत्रियों में मधुबाला मुझे बेहद पसंद हैं। इसलिए नहीं कि वे ख़ूबसूरत थीं। ख़ूबसूरत तो थी हीं वे लेकिन मुझे उनका अभिनय काफ़ी पसंद था। उनका चुलबुलापन, उनकी अदाएं मुझे बेतरह पसंद हैं। अभिनेताओं में दिलीप कुमार और बाद की पीढ़ी में ऋषि कपूर’। फ़िल्मों के निर्देशन का विचार कभी आया, ‘नहीं अभी मैं सारा ध्यान अभिनय पर ही दे रही हूं। निर्देशन का अभी तक सोचा नहीं है’। लेकिन अगर कभी फ़िल्म निर्देशन का ख़याल आया तो किस तरह की फ़िल्में बनानी पसंद करेंगे। दिव्या हौले से मुस्कुरार्इं और कहा- बसु दा जैसी फ़िल्में बनाते थे।
खाना खाते हुए देश-दुनिया की बातें भी होती रहीं। धारावाहिकों से लेकर अण्णा हज़ारे बाचतीच के केंद्र में रहे। इस दौरान दिव्या ने मुझसे पूछा कि आप कहां के रहने वाले हो, मैं उन्हें बताता हूं कि मेरा ताल्लुक़ बिहार से है, घर देहरादून में बनाया है और ग़मे-रोज़गार की वजह से दश्त की सैयाही ख़ूब की है। गुवाहाटी, कोलकाता, से होते हुए दिल्ली में डेरा जमा रखा है, अब आप तय करें कि मैं कहां का रहने वाला हूं, अपने लिए तो बस इतना ही कह सकता हूं कि रहने को घर नहीं हैं, सारा जहां हमारा।
खाना ख़त्म हो चुका था। इस बीच बेटी का फ़ोन आता है। उसे पूछा था दिव्या दत्ता से मुलाक़ात हो गई। मैंने उसे जवाब में कहा कि उनके साथ ही खाना खा रहा हूं तो उसे भी थोड़ी हैरत हुई। मैंने पूछा कि बात करोगी तो वह तैयार हो गई। दिव्या की तरफ़ फ़ोन बढ़ाते हुए मैंने कहा कि मेरी बेटी है आपसे बात करना चाहती है। दिव्या ने बेटी का नाम पूछा, ‘राष्ट्रीय सुंबुल’ मैंने बताया। दिव्या थोड़ी-सी चौंकीं, कहा- बहुत यूनिक नेम है, अपने आप में अलग। मैंने हामी भरी, हां कुछ तो अलग है। तब तक वे फ़ोने ले चुकी थीं। उन्होंने बेटी से भी यह बात दोहराई और कहा- तुम्हारा नाम बहुत ख़ूबसूरत है। थोड़ी देर तक दोनों बात करती रहीं। बातचीत ख़त्म हुई तो फ़ोन उन्होंने मेरी तरफ़ बढ़ाया। बेटी को संतोष हुआ। उसने कहा कि मुझे तो यक़ीन ही नहीं आ रहा है कि मैंने दिव्या दत्ता से बात की है। फ़ोन रख कर दिव्या से कहता हूं कि बेटी के लिए एक आॅटोग्रॉफ़ तो दे दें। वे आॅटोग्रॉफÞ देती हैं। मैं उनसे मेल आईडी और नंबर का आग्रह करता हूं। उसी काग़ज़ पर वे नंबर और अईडी लिख देती हैं। खाना हो चुका था। उन्हें भिंसारे लखनऊ के लिए विमान पकड़नी थी। वे विदा लेती हैं लेकिन तभी उनसे पूछता हूं कि और किन चीज़ों में उनकी रुचि है। वे जवाब देती हैं लेखन में, मैं कई जगह कॉलम लिखती हूं। उनका यह जवाब चौंकाता है। मन में जिज्ञासा होती है और उसे उनके सामने रखता हूं, किस तरह का लेखन। सोचा तो यह था कि वे जवबा देंगी फ़िल्मों से जुड़े अनुभवों पर लिखती हूं। लेकिन उनका जवाब होता है जो मुझे अंदर तक झकझोरता है वह चाहे अण्णा हज़ारे का आंदोलन हो या फिर आम आदमी की पीड़ा। मुझे जो चीज़ अंदर कहीं छूती है उसे मैं अपने लेखन का विषय बनाती हूं। वह चलने को तैयार थीं, कहती हैं सुबह सवेरे उठना है, आज्ञा दें। उनके चलने से पहले मैं यह ज़रूर जोड़ता हूं आपकी कुछ चीज़ें पढ़ना चाहूंगा संभव हो तो मेल से अपना कुछ लिखा भेजें। वे हामी भरती हैं और फिर अपने कमरे की तरफ़ बढ़ जाती हैं।
उनके जाने के बाद हम लोगों के अलावा मैक्स के अधिकारी भारती, नीरज और गौरव सेठ बैठ कर गपें मारते हैं। तब तक बैरे ने मेरी पसंदीदा चीज़ क़ुलफ़ी मेरे प्लेट में ला रखी। मैंने बैरे से कहा कि एक और डाल दें। फिर एक रस्सगुल्ला मैंने लिया। मीठा खाने के बाद बैरा पान रख गया। काफ़ी अरसे बाद पान खाने की ख़्वाहिश हुई। एक पान का बीड़ा उठा कर मुंह में डाला और अपने मेज़बानों का शुक्रिया अदा कर कहा कि अब हमें भी चलना चाहिए।
रात थोड़ी और गहरा गई थी। हवाई अड्डा नज़दीक होने की वजह से विमानों का उतरना और उड़ान भरना जारी था। ड्राइवर इसी बीच गाड़ी ले आया था। मैं घर लौट रहा था। लौटते वक्Þत भी दिव्या की बातें याद आरही थीं। उनकी सादगी, उनका बेलौस लहजा और उनकी साफ़गोई अच्छी लगी थी। दिव्या को अपनी सीमाओं का पता है और उनसे बेहतर इसे कोई और समझ भी नहीं सकता लेकिन फिर भी किसी तरह का बड़बोलापन नहीं। वे कहने से ज्Þयादा करने पर यक़ीन रखती हैं। दिव्या दत्ता से मिल कर, उनसे बातें कर लगा कि उनके अंदर कहीं एक बेहतर इंसान बैठा है जो उन्हें अच्छा करने के लिए प्रेरित करता रहता है। वह जो बेहतर इंसान है, उन्हें राह भी दिखाता है और अच्छे व बुरे का सलीक़ा भी सिखाता है। शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि दिव्या का रिश्ता सिर्फÞ फ़िल्मों से नहीं है, उनका रिश्ता शब्दों के साथ भी है। शब्द आदमी को आदमी होने की तमीज़ भी सिखाता है और रोटी खाने का सलीक़ा भी। शब्द आदमी को आदमी बनने की तमीज़ सिखाते हैं। दिव्या दत्ता शब्दों को साधती हैं इसलिए वे दूसरे फ़िल्मवालों से अलग हैं, जुदा हैं।

(लेखक नई दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार है . उनसे fazalmallick@gmail.com के जरिये संपर्क किया जा सकता है .)

Thursday, September 1, 2011


पत्रकार बना ऑटो ड्राइवर
(सरफराज सैफ़ी/नोएडा )

रविवार का दिन मेरी कार सर्विसिंग के लिये गई थी सोंचा आटो में बैठकर अपने दफ्तर चला जाउं घर से निकलकर कालिंदी कुंज रोड पर पहुंचा। चिलचिलाती धूप में काफी देर तक खड़ा रहा उस वक्त तकरीबन 12 बजे थे। काफी देर के बाद एक के बाद एक कई आटो आये लेकिन पैसा ज्यादा मांगने की वजह से बात नहीं बन पाई।

कोई भी मीटर से चलने को तैयार नहीं हो रहा था क्योकि मेरा आफिस नोएडा सैक्टर 63 में है। ऑटो वाले दूर होने का बहाना बनाकर चल पड़े। काफी देर की जद्दोजहद के बाद 12.30 के करीब एक ऑटो वाला आया। ऑटो ड्राइवर देखने में बढिया और पढ़ा - लिखा समझदार लग रहा था कपड़े भी उसने सलीकेदार पहन रखे थे। उसने ऑटो रोकते हुए पूछा -कहाँ जाना है आपको सर मैने कहा नोएडा सेक्टर 63 के एच ब्लाक में जाना है। उसने कहा ठीक है चलेंगे पर 130 रूपये लगेंगे. ऑटो वालों से झिक झिककर अब मैं इस कदर आजिज आ चुका था कि उसकी बात मानने में ही अपनी भलाई समझ फिर चैनल के दफ्तर पहुँचने में देर भी हो रही थ वैसे भी दूसरे ऑटो वालों से कम पैसे ही वह मांग था लेकिन एक बार दिमाग में जरूर आयी कि एक पत्रकार होने के बावजूद मुझे इतनी परेशानी झेलनी पड़ रही है. आम लोगों को कितनी दिक्कत होती होगी तमाम कोशिशों के बावजूद ऑटो चालकों की मनमानी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुई है ऑटो में बैठा ही था कि इतने में मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी. मैं बातें करने लगा. मेरी बात जैसे ही खत्म हुई तो आटो ड्राईवर ने पूछा - "आप क्या करते हो सर?"
मैने कहा पढता हूं ऑटो चालक ने तपाक से पूछा - फिर आप सेक्टर 63 में क्या करने जा रहे हो?
यह कहते हुए उसके चेहेरे पर व्यंग्य की एक हल्की रेखा मैं साफ़ - साफ़ देख रहा था कुछ देर की चुप्पी के बाद ऑटो ड्राइवर ने कहा - सरफराज सैफी आप झूठ बोल रहे हैं आप न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के दफ्तर में जा रहे हैं कुछ हैरानी और परेशानी से मैं उसकी तरफ देखने लगा। मुझे लगा कि इसे मेरे नाम और काम के बारे में कैसे पता है इधर-उधर की बाते करने के काफी देर बाद उसने अपने बारे में जो बताया उसे सुनकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। दरअसल वो लड़का (सोनू - बदला हुआ नाम) बिहार के किसी इलाके का रहने वाला है। यूपीएससी की तैयारी के मकसद से दिल्ली पहुंचा था। आईएस बनने का सपना था, लेकिन आर्थिक कारणों से यूपीएससी की तैयारी अधूरी छोड़कर उसने पत्रकारिता की पढ़ाई की। फिर कई सालों तक न्यूज चैनलों में काम किया यहां तक तो सब ठीक था। बाद में चैनल के दफ्तर में उसके साथ जो खेमेबाजी हुई, उसने उसे एक पत्रकार से ऑटो ड्राइवर बनने पर मजबूर कर दिया चैनल के अंदर की खेमेबाजी से तंग आकर सोनू ने पत्रकारिता छोड़ दी। काफी दिनों तक परेशान रहा कि करे तो क्या करे। घरवालों को भी नहीं बताया लेकिन रोजी -रोटी के लिए कुछ न कुछ तो करना ही था सो उसने ऑटो चलाने की सोंची किसी जानकार से तीन सौ रूपये रोज के किराए पर ऑटो चलाना शुरू किया और यूँ सोनू पत्रकार बन गया सोनू ऑटो ड्राइवर लेकिन सोनू को अब इस काम से किसी छोटेपन का एहसास नहीं होता. कमाई भी अच्छी हो जाती है। सोनू प्रतिदिन कम-से-कम 1200 से 1500 रुपए तक ऑटो चलाकर कम लेता है यानी महीने के करीब 36000 हजार से 45000 हजार रुपए महीना। यह सब बताने के बाद ऑटो में ख़ामोशी सी पसर जाती है। सोनू ऑटो चलाते हुए कुछ खो सा जाता है. मानो अतीत में अपनी परछाइयों को ढूंढ रहा हो मेरे टोकने के बाद उसने अपनी ख़ामोशी तोड़ते हुए उन पत्रकारों को कोसना शुरू कर दिया जिसकी वजह से उसे चैनल की नौकरी छोड़नी पड़ी।
सोनू अपनी आपबीती बताते हुए कहते हैं की जो होता है अच्छे के लिए होता है मेरी नौकरी जिस पत्रकार की वजह से गयी, मैं उस पत्रकार से अब ज्यादा कमाता हूँ और उससे ज्यादा आराम से रहता हूं। भला हो उस महान प्रोड्यूसर साहब का जिसने मुझे चैनल से बाहर का रास्ता दिखाया यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उस नरक से निकाला. वो महीने के आखिर में दस बार पैसे के लिये सोचता होगा पर मैं हर रोज गड्ढा खोदता हूं हर दिन पानी निकालता हूं। आज मेरे पास अपने दो ऑटो हैं जो किराये पर चलते हैं। कभी-कभी।

(लेखक सरफराज सैफ़ी न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल में बतौर एंकर कार्यरत हैं . )

साभार - न्यूज़ एक्सप्रेस वेबसाइट

Saturday, August 27, 2011

नई मीडिया अकेडमी TIMES 29 का शुभारम्भ



(नोएडा /मीडिया मंच )
नोएडा में कुछ टीवी और प्रिंट के पत्रकारों ने मिलकर एक मीडिया अकेडमी खोली है. नाम है TIMES29 MEDIA ACADEMY. वेबसाइट है www.times29.in देखिए और अगर कुछ सुझाव हों तो बताइए... एक बात और, हम यहां पर 40% गरीब बच्चों को फ्री में पढ़ाएंगे। सालाना 'अशोक उपाध्याय स्कॉलरशिप' भी दी जाएगी और हॉस्टल की सुविधा भी। पता है- Times29 Media Academy, N-2 Basement, Sector-11, opp. Metro Hospital Chowk, NOIDA. खास बात ये है कि ये संस्थान भारत सरकार के समक्ष पंजीकृत बुंदेलखंड फिल्मस एंड मीडिया प्रमोशनल सोसायटी से संबद्ध है।
(यह जानकारी नई दिल्ली के पत्रकार अतुल अग्रवाल के फेसबुक एकाउंट से लेकर यहाँ प्रकाशित की गयी है . )

Monday, August 22, 2011

जाने - माने पत्रकार रवि मोहंती का निधन
( भुवनेश्वर /मीडिया मंच )
उड़ीसा से मीडिया जगत के लिए एक दुखद खबर है .यहाँ पर रविवार को जाने - माने पत्रकार रवि मोहंती का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया . वे 68 वर्ष के थे . कई जाने - माने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की मौजूदगी में उनका अंतिम संस्कार पुरी में किया गया .
60 के दशक के दौरान पत्रकरिता में कदम रखने वाले रवि मोहंती ने अपने करियर के दौरान ' कलिंगा ' , प्रजातंत्र ' और ' नयाबाती ' सहित कई समाचारपत्रों के लिए काम किया.
रवि मोहंती उड़ीसा जर्नलिस्ट यूनियन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे . वही वे उड़ीसा जर्नलिस्ट वेलफेयर बोर्ड के सदस्य रहने के अलावा नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट के वाइस प्रेसिडेंट भी रहे .
रवि मोहंती की निधन पर उड़ीसा के पत्रकारों के अलावा राज्यपाल मुरलीधर चंद्रकांत भंडारे सहित मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी गहरा शोक प्रकट किया है .
रवि मोहंती के निधन पर मीडिया मंच भी गहरा शोक प्रकट करती है .
फोटो साभार - उड़ीसा डायरी .कॉम

Thursday, August 18, 2011


भोपाल (ब्यूरो)। नवदुनिया के नए संस्करण नवदुनिया फास्ट का लोकार्पण बुधवार को नए जोश और जज्बे के साथ समारोहपूर्वक हुआ। इस अवसर पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसे नए जमाने की अपेक्षाओं से जोड़ते हुए कहा कि आज सब कुछ फास्ट है। अण्णा "फास्ट" पर हैं तो उन्हें रोकने में सरकार फास्ट हो गई है, लेकिन जनता उससे भी सुपरफास्ट है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में सभी को अभिव्यक्ति का अधिकार है। लेकिन हम इसको लेकर इतने असहज क्यों हैं? यदि कोई हमसे अच्छा करता है तो उसे "देख लेने" का भाव लोकतंत्र के लिए घातक है। मीडिया को इस अधिकार की रक्षा के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए। मुझे विश्वास है कि नवदुनिया फास्ट नए मूल्य लेकर आगे बढ़ेगा और यह मूल्य शुभ होंगे।

रवीन्द्र भवन में आयोजित एक गरिमामय कार्यक्रम की अध्यक्षता जनसंपर्क व उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने की। इस मौके पर विशेष अतिथि फिल्म अभिनेताद्वय मुकेश तिवारी तथा चेतन पंडित मौजूद थे। मुख्यमंत्री ने नवदुनिया फास्ट के लिए अपनी शुभकामनाएँ देते हुए कई सामयिक मुद्दों पर भी अपनी बात रखी। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार की एक मुख्य वजह चुनाव है।

सरकारों को हमेशा वोटों का डर सताता है कि यदि कोई कठोर फैसला लिया तो वोट कट जाएँगे। मेरा कहना है कि सरकारें पाँच साल के लिए चुनी जाएँ। बीच में कोई चुनाव न हो। चुनाव के लिए पैसा सरकारी फंड से मिले। नवदुनिया फास्ट को इसके लिए गंभीर बहस छेड़नी चाहिए कि सरकारें पाँच साल तक के लिए चुनी जाएँ। चुनाव के लिए सरकारी फंड हो। प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री का निर्वाचन सीधे चुनाव से हो। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाए।

Tuesday, August 9, 2011


पत्रकार अकरम हत्याकांड - 4 हिरासत में
(नई दिल्ली /मीडिया मंच )

ईटीवी के पत्रकार अकरम लतीफ़ की हत्या की जाँच में जुटी दिल्ली पुलिस ने इस मामलें में चार लोगों को हिरासत में लिया है . हालाँकि पुलिस ने इन आरोपियों के बारें में ज्यादा जानकारी नहीं दी है . अकरम लतीफ़ की पिछले 5 अगस्त को नोर्थ दिल्ली के वेलकम इलाके में कुछ अज्ञात हमलावरों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी . पुलिस फ़िलहाल हत्या के मोटिव को लेकर कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई है . वही इस हत्या को लुट से भी जोड़ कर देखा जा रहा है . अकरम लतीफ़ की पत्नी कजिया के मुताबिक अकरम शुक्रवार ५ अगस्त को ईटीवी के नई दिल्ली में स्थित झंडेवाल ऑफिस जाने वाले थे लेकिन वे किस वजह से नोर्थ दिल्ली पहुँच गए , यह एक बड़ा सवाल है . वही यदि यह मामला लुट का था फिर हमलावरों ने अकरम की किसी भी चीज़ को हाथ क्यों नहीं लगाया . गौरतलब हो की अकरम के परिवारवाले आरोप लगा चुके है की अमरोहा आने के बाद अकरम लतीफ़ ने लोकल बिल्डर माफिया के खिलाफ कुछ स्टोरी की थी जिसके बाद से उन्हें लगातार धमकी मिल रही थी जिसकी शिकायत उन्होंने अमरोहा पुलिस से भी की थी . .